25 जून, 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे काली रात मानी जाती है। इसी रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल की घोषणा की।
आज 25 जून को इमरजेंसी के अब 50 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन इसकी चर्चा आज भी होती है।
🔹आइए जानते है आपातकाल की पृष्ठिभूमि:
आपातकाल का बीज कुछ दिन पहले ही बोया गया था, जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनाव को धांधली का दोषी मानते हुए अमान्य घोषित कर दिया। इसके बाद 24 जून को सुप्रीम कोर्ट से भी राहत सीमित मिली और उनकी संसदीय सदस्यता पर संकट खड़ा हो गया।
स्थिति से घिरी इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए 25 जून की रात देश में आपातकाल लागू कर दिया, जो 21 मार्च 1977 तक यानी पूरे 21 महीने चला। इस दौरान विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया, मीडिया पर सेंसरशिप लगी, और नागरिक स्वतंत्रताएं समाप्त हो गईं।
हालांकि, इस दौर में सिर्फ इंदिरा गांधी ही नहीं, बल्कि उनके बेटे संजय गांधी और उनके कुछ करीबी सहयोगियों नेताओ की भूमिका भी बेहद विवादास्पद रही। नसबंदी अभियान, झुग्गी-बस्तियों को तोड़ना, और राजनीतिक दमन — इन सबके पीछे संजय गांधी और उस समय के नेताओं का सीधा हस्तक्षेप बताया जाता है। लेकिन बाद में इन्ही नेताओ ने कांग्रेस को छोड़कर दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया था।
आज हम इन्हीं नेताओं और अधिकारियों के बारे में बात करेंगे — जिन्होंने कभी आपातकाल के समय इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी रहे या फिर उनके दिशा-निर्देश के अनुरूप काम किया और बाद में खुद को नई राजनीति का चेहरा बना लिया।
🔹इन्हीं चेहरों में एक नाम सबसे प्रमुखता से उभरकर सामने आता है—मेनका गांधी।
वे उस दौर में न सिर्फ संजय गांधी की पत्नी थीं, बल्कि उनके करीबी साथियों के साथ सत्ता के केंद्र में भी उनकी भूमिका थी। लेकिन संजय गांधी की 1980 में विमान दुर्घटना में मृत्यु ने उनके जीवन और राजनीति दोनों को पूरी तरह बदल दिया।
गांधी परिवार में पड़ी सबसे बड़ी दरार
संजय गांधी की मौत के बाद, कांग्रेस और गांधी परिवार की राजनीति की कमान अब राजीव गांधी के हाथों में आ गई। इससे मेनका गांधी खुद को अलग-थलग महसूस करने लगीं। इंदिरा गांधी से उनके रिश्ते बिगड़ते गए, और अंततः 28 मार्च 1982 की रात मेनका गांधी प्रधानमंत्री आवास छोड़कर बाहर आ गईं। उनके साथ थे संजय गांधी के कुछ पुराने विश्वस्त लोग, जैसे अकबर अहमद डंपी।
यहीं से शुरू हुआ गांधी परिवार के दो राजनीतिक ध्रुवों में बंट जाने का सिलसिला—एक तरफ सोनिया, राजीव और राहुल गांधी, दूसरी ओर मेनका और वरुण गांधी।
एक नई राजनीतिक यात्रा की शुरुआत
मेनका गांधी ने 1983 में ‘राष्ट्रीय संजय मंच‘ बनाया, और फिर 1984 में राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ा, हालांकि हार गईं। बाद में वे 1988 में जनता दल में शामिल हुईं और 1989 में पहली बार सांसद बनीं। इसके बाद 1996, 1998 और फिर 2004 में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया।
यहां से उनके बेटे वरुण गांधी की राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। दोनों ने मिलकर बीजेपी में एक मजबूत उपस्थिति दर्ज की। वरुण गांधी 2013 में बीजेपी के सबसे युवा महासचिव बने। हालांकि हाल के वर्षों में उनका प्रभाव थोड़ा कम हुआ, फिर भी 2019 के लोकसभा चुनावों में वरुण को पीलीभीत से टिकट मिला और मेनका गांधी को सुल्तानपुर भेजा गया—दोनों ने जीत हासिल की।
🔹विद्या चरण शुक्ल:
इमरजेंसी में ‘सूचना नियंत्रक‘ से भाजपा तक
आपातकाल के दौरान जिन नेताओं को जनता ‘तानाशाही के औजार’ के रूप में पहचानने लगी थी, उनमें विद्या चरण शुक्ल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1957 में जब वे केवल 26 वर्ष के थे, तब उन्होंने महासमुंद लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज कर संसद में प्रवेश किया। लगातार नौ बार लोकसभा चुनाव जीतकर, उन्होंने खुद को कांग्रेस के एक बेहद प्रभावशाली और वरिष्ठ नेता के रूप में स्थापित किया।
1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्होंने शुक्ल को कैबिनेट में शामिल किया और उन्हें कई महत्त्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे—जैसे सूचना एवं प्रसारण, रक्षा, गृह, विदेश, वित्त, जल संसाधन, आदि।
इमरजेंसी के कड़े निर्णय और किशोर कुमार विवाद
आपातकाल (1975-77) के दौरान विद्या चरण शुक्ल सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। इस दौरान उन्होंने वह फैसला लिया जिसने उन्हें विवादों के केंद्र में ला दिया—उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर किशोर कुमार के गाने पर प्रतिबंध लगा दिया, क्योंकि किशोर कुमार ने कांग्रेस के लिए प्रचार में गाने से इनकार कर दिया था। इस निर्णय ने उन्हें ‘सेंसरशिप के प्रतीक‘ के रूप में ख्याति दिलाई।
बदलती निष्ठाएं और लोकतांत्रिक मोर्चे की ओर कदम
1980 के दशक के मध्य में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और राजीव गांधी के खिलाफ विद्रोह में शामिल हो गए। उन्होंने अरुण नेहरू, वी.पी. सिंह, और आरिफ मोहम्मद खान के साथ मिलकर ‘जन मोर्चा‘ की स्थापना की। इसके बाद वह 1989-90 में वी.पी. सिंह सरकार में मंत्री बने और 1990-91 में चंद्रशेखर सरकार में विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया।
इसके बाद वे कांग्रेस में लौटे, और 1991-96 में पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में संसदीय कार्य मंत्री और सिंचाई मंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे।
भाजपा में शामिल होने से पुनः कांग्रेस वापसी तक
राजनीतिक घटनाक्रमों ने उन्हें एक बार फिर 2003 के अंत में भाजपा में पहुंचा दिया, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में महासमुंद से अजीत जोगी से हार के बाद उन्होंने भाजपा छोड़ दी। 2004 से वे राजनीतिक रूप से अनिश्चितता में थे और कांग्रेस में वापसी की कोशिश कर रहे थे। अंततः 2007 में सोनिया गांधी ने उनकी घरवापसी को मंजूरी दी, और वे 2013 में अपनी मृत्यु तक कांग्रेस में बने रहे।
बंसीलाल: आपातकाल में ‘इंदिरा के सेनापति’, फिर कांग्रेस विरोधी चेहरा और चौथी बार मुख्यमंत्री
आपातकाल के दौर में जो नेता सत्ता के सबसे करीबी माने जाते थे, उनमें चौधरी बंसीलाल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इंदिरा गांधी और संजय गांधी के विश्वासपात्र बंसीलाल न केवल हरियाणा की राजनीति में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी एक ताकतवर चेहरा बन चुके थे। उन्हें इंदिरा गांधी का “स्टील फ्रेम” कहा गया। आपातकाल (1975–77) के दौरान बंसीलाल का योगदान सत्ता की कठोर नीतियों को लागू करने में महत्वपूर्ण रहा। वे हरियाणा के मुख्यमंत्री होने के साथ ही दिसंबर 1975 से मार्च 1977 तक देश के रक्षा मंत्री रहे। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और जबरन नसबंदी अभियान जैसे विवादास्पद कदमों में केंद्र का सक्रिय समर्थन किया। उनकी सोच का अंदाज़ा इस बयान से लगाया जा सकता है, जब उन्होंने सार्वजनिक मंच से कहा था— “इस चुनावी झंझट को खत्म करो. हमारी बहन (इंदिरा) को आजीवन राष्ट्रपति बना दो।”
बंसीलाल का राजनीतिक सफर 1957 में बार काउंसिल के अध्यक्ष बनने से शुरू हुआ और 1959 में वे हिसार जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। 1967 में विधायक बनने के कुछ ही समय बाद वे पहली बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। वे कुल तीन बार मुख्यमंत्री रहे—1968 से 1975, 1985 से 1987 और फिर 1996 से 1999 तक। केंद्र में वे रेलवे, परिवहन और रक्षा जैसे अहम मंत्रालयों में मंत्री रहे। वे सात बार हरियाणा विधानसभा के लिए चुने गए।
लेकिन आपातकाल में कांग्रेस के सबसे कट्टर समर्थकों में गिने जाने वाले बंसीलाल ने 1996 में उसी पार्टी से नाता तोड़ लिया और हरियाणा विकास पार्टी बनाई। शराबबंदी को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया और भारतीय जनता पार्टी (BJP) से गठबंधन करके चुनाव लड़ा। इस गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया—हरियाणा विकास पार्टी को 33 और BJP को 11 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस केवल 9 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद बंसीलाल चौथी बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने।
हालांकि यह गठबंधन अधिक समय तक नहीं चल पाया। BJP और हरियाणा विकास पार्टी के बीच मतभेद गहराने लगे और 22 जून 1999 को BJP ने समर्थन वापस ले लिया। बंसीलाल सरकार अल्पमत में आ गई। 25 जून को फ्लोर टेस्ट तय था, लेकिन कांग्रेस ने भी बंसीलाल को समर्थन नहीं दिया। उनके राजनीतिक प्रभाव में धीरे-धीरे गिरावट आई, और सत्ता में बने रहने के लिए की गई उनकी कोशिशें विफल हो गईं।
जगमोहन मल्होत्रा: इमरजेंसी में ‘सफाई अभियान‘ के नायक, बाद में बीजेपी के मजबूत चेहरा
आपातकाल के दौर में संजय गांधी के सबसे भरोसेमंद अधिकारियों में जो नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह है जगमोहन मल्होत्रा। एक सख्त छवि वाले नौकरशाह के रूप में उन्होंने सत्ता के निर्देशों को न सिर्फ पूरी निष्ठा से लागू किया, बल्कि उनकी कार्यशैली उन्हें संजय गांधी की “पहली पसंद” बना गई।
इमरजेंसी में झुग्गी-हटाओ अभियान और दिल्ली की नई सूरत
1975 में दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) के चेयरमैन रहे जगमोहन को संजय गांधी ने बुलाकर स्पष्ट निर्देश दिए—“मुझे साफ-सुथरी पुरानी दिल्ली चाहिए।” झुग्गियों को हटाने और पुराने शहर के पुनर्विकास का ज़िम्मा उन्हें सौंपा गया।
उनकी छवि एक कठोर लेकिन कार्यकुशल प्रशासक की थी, और इमरजेंसी के दौरान दिल्ली के झुग्गीवासियों को हटाने के लिए जो अभियान चला, वह उन्हें जनता के एक वर्ग में नायक नहीं, बल्कि कठोर प्रशासक के रूप में स्थापित करता गया।राजनीति में प्रवेश और कांग्रेस से दूरी
जगमोहन ने अपनी प्रशासनिक सेवा के बाद राजनीति की ओर रुख किया। वे दिल्ली और गोवा के उपराज्यपाल भी रहे। फिर उन्होंने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में दो बार सेवा दी—पहली बार 1984 से 1989 तक, और फिर 1990 में जनवरी से मई तक, उस दौर में जब घाटी में उथल-पुथल चरम पर थी।
समय के साथ उनकी कांग्रेस से दूरी बढ़ती गई, और 1990 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) का दामन थाम लिया।
बीजेपी में नई भूमिका और केंद्रीय मंत्री पद
जगमोहन ने भाजपा में रहते हुए 1996, 1998 और 1999 में लोकसभा चुनाव जीते। जब 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने जगमोहन को अपनी कैबिनेट में नगरीय विकास और पर्यटन मंत्री बनाया। उनकी प्रशासनिक दक्षता और अनुशासनप्रियता ने उन्हें मंत्री के रूप में भी विशिष्ट पहचान दी।