अंतरिक्ष में कैसे जाते हैं एस्ट्रोनॉट?A टू Z विश्लेषण

“अंतरिक्ष विशाल है…अनंत है, इसका ना कोई आदि है ना अंत है…इसे पूरी तरह कहां कोई जान पाया…ना ही ज्ञानी ना कोई साधु संत…आपने अपने स्कूल के दिनों में साइंस की क्लास में अपने मास्टर जी से सिलेबस की तमाम साइंटिफिक बातों के इतर अंतरिक्ष की विशालता पर कुछ ऐसा जरूर सुना होगा…फिर सोचा ही होगा कि ये अंतरिक्ष क्या है?

ये कहां है?…तो अब मैं आसान शब्दों में इन सारे सवालों का जवाब दूं तो कह सकते हैं कि जिसकी कोई सीमा नहीं हो, जो असीमित है वो अंतरिक्ष है…या फिर जिसको लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई तीनों आयामों में मापा जा सके वो अंतरिक्ष है…या फिर वो जो सवालों और संभावनाओं से भरा एक अथाह वैक्यूम है..वो अंतरिक्ष है…और इन्हीं सवालों के जवाब और संभावनाओं को तलाशने के लिए कुछ लोग हैं जो अंतरिक्ष की यात्रा करते हैं, वहां रहते हैं, पृथ्वी पर पैदा होने वाले सवालों के जवाब ढूंढते हैं…

…जी हां, दोस्तों हम बात कर रहे हैं एस्ट्रोनॉट यानि अंतरिक्ष यात्रियों की…जो पृथ्वी से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर विज्ञान और अंतरिक्ष की दुनिया में नए रास्ते खोलते हैं जहां अंतरिक्ष में इन एस्ट्रोनॉट को भेजने का काम कई देशों की स्पेस एजेंसियां जैसे अमेरिका की नासा, यूरोपियन स्पेस एजेंसी ESA, भारत की इसरो करती है…लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि ये एस्ट्रोनॉट कैसे अंतरिक्ष में जाते हैं, कहां से इनका खास विमान उड़ान भरता है, कहां उतरता है..स्पेस में कैसे पहुंचते हैं और किस स्पीड से जाते हैं..ये वो तमाम सवाल हैं जिनका जवाब आज हम इस वीडियो में आगे देने वाले हैं.

लेकिन उससे पहले आपको बता दें कि आज हम अंतरिक्ष की बात क्यों कर रहे हैं…दरअसल उसके पीछे भी एक खास वजह है, दोस्तों, वर्तमान में NASA और अमेरिकी प्राइवेट स्पेस कंपनी एक्सिओम स्पेस मिलकर एक मिशन एक्सियम-4 लांच कर रहे हैं जहां फ्लोरिडा में नासा के कैनेडी स्पेस सेंटर से 4 अंतरिक्ष यात्रियों को स्पेसएक्स के फाल्कन-9 रॉकेट के जरिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन यानि ISS भेजा जाएगा और इन चार यात्रियों में एक भारतीय शामिल है.

जी हां, भारतीय वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला एक्सियम-4 मिशन के तहत इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन यानि यानी ISS जा रहे हैं जो ISS का दौरा करने वाले दूसरे भारतीय होंगे. शुभांशु शुक्ला विमान के पायलट के रूप में काम करेंगे. वहीं इससे पहले राकेश शर्मा पहले भारतीय थे, जो साल 1984 में रूसी मिशन के तहत स्पेस में गए थे. ऐसे में इस मिशन से भारत को तकनीकी, वैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर फायदा होगा और माना जा रहा है कि भविष्य के गगनयान और अगले स्पेस स्टेशन की नींव मजबूती के साथ रखी जा सकेगी.

दोस्तों ये अभियान पहले 8 जून को अंतरिक्ष स्टेशन की ओर रवाना होना था लेकिन ख़राब मौसम की वजह से लगातार रूकावट आती रही है और अब आखिरकार लंबे इंतजार के बाद भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला और तीन अन्य यात्रियों को लेकर एक्सिओम-4 मिशन (Axiom-4 Mission) अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) की यात्रा के लिए 25 जून को उड़ान भर रहा है

अब आइए लौटते हैं वापस मुद्दे पर…तो दोस्तों, सबसे पहले जानते हैं कि आखिर ये यात्री किस विमान के जरिए और कहां से अंतरिक्ष की ओर जा रहे हैं. दरअसल एक्सियम-4 मिशन के तहत इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन यानि यानी ISS जाने वाले चारों अंतरिक्ष यात्री स्पेसएक्स के क्रू-ड्रैगन अंतरिक्ष यान में सवार होकर ISS की जाएंगे जहां इनका विमान फाल्कन-9 रॉकेट के जरिए लॉन्च किया जाएगा. दोस्तों, अंतरिक्ष में कोई भी मिशन शुरू करने से पहले वैज्ञानिक एक “लॉन्च विंडो” चुनते हैं, यानी कि वह खास समय जब रॉकेट को लॉन्च करना होता है जिससे कि वह अपनी सही जगह पहुंच सके.

अब आप जानते ही होंगे कि ISS पृथ्वी से लगभग 400 किमी ऊपर…28,000 किमी/घंटा की रफ्तार से चक्कर लगाता है, इसलिए, रॉकेट की ट्रेजेक्टरी ISS की कक्षा के साथ सही ढंग से मिलना जरूरी है और यह सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक लांचिग से पहले कई केल्कुलेशन करते हैं.

इसके बाद क्रू-ड्रैगन सीधे ISS की ओर नहीं जाता है, यह एक घुमावदार रास्ते पर चलता है, जिससे ईंधन की बचत होती है…क्योंकि अगर सीधा जाएगा तो उसे गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ लगातार स्पीड बढ़ानी होगी जिसमें बहुत ज्यादा ईंधन खर्च हो जाएगा. ऐसे में अंतरिक्ष यान पहले पृथ्वी की कक्षा यानि ऑर्बिट में पहुंचता है और फिर धीरे-धीरे ISS की कक्षा के साथ तालमेल बिठाता है.

अब बात करते हैं उस रॉकेट की जिससे अंतरिक्ष यात्रियों का विमान लांच किया जाता है…तो दोस्तों, जैसा हमनें आपको पहले बताया कि उस रॉकेट का नाम है फाल्कन-9 जो एलोन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स द्वारा डिज़ाइन और बनाया गया है.

ये रॉकेट दो चरणों में स्पेस की ओर बढ़ता है जहां पहले चरण को बूस्टर कहा जाता है जिसमें 9 मर्लिन इंजन यानि कि स्पेसएक्स द्वारा बनाए गए रॉकेट इंजन का एक समूह) और ईंधन टैंक होते हैं, जिनमें लिक्विड ऑक्सीजन और रॉकेट-ग्रेड केरोसिन होता है…यह रॉकेट को वायुमंडल के किनारे तक ले जाता है…वही इसके दूसरे चरण में एक सिंगल मर्लिन इंजन होता है..जो अंतरिक्ष यान को तय की हुई कक्षा तक ले जाता है.

अब रॉकेट के लॉन्चिंग के बाद, फाल्कन-9 जैसे ही वायुमंडल के किनारे तक पहुंचता है…और अपने मुख्य इंजनों का संपर्क खुद से अलग कर देता है यानि कि पहला चरण पूरा हो गया और अब ये 9 इंजन वापस पृथ्वी की ओर लौटते हैं जहां इन्हें समुद्र या जमीन पर उतारा जाता है जिन्हें फिर से काम में भी लिया जा सकता है.

वहीं इसके बाद दूसरे चरण में एक सिंगल मर्लिन इंजन की मदद से तय की गई कक्षा की ओर क्रू-ड्रैगन आगे बढ़ता है और इसके बाद ड्रैगन कैप्सूल दूसरे चरण से अलग हो जाता है और ISS की ओर बढ़ता है.

बता दें कि क्रू-ड्रैगन को ISS तक पहुंचने में आमतौर पर 28 घंटे लगते हैं…यह रूस के सोयुज अंतरिक्ष यान (जो 8 घंटे में पहुंचता था) की तुलना में थोड़ा धीरे चलता है..क्योंकि ड्रैगन एक नया अंतरिक्ष यान है.

तो दोस्तों, अब जब ड्रैगन कैप्सूल ISS के करीब पहुंच गया है तो कई स्टेप से गुजरता है जिसमें सबसे अहम होती है डॉकिंग..जी हां, इसमें कई चरण होते हैं जिनकी मदद से ड्रैगन कैप्सूल स्पेस की कक्षा में स्थापित होता है. सबसे पहले होता है ट्रेजेक्टरी मिलाना जहां ड्रैगन 16 छोटे ड्रेको थ्रस्टर्स की मदद से अपनी कक्षा को ISS के साथ मिलाता है…ये थ्रस्टर धीरे-धीरे धक्के देकर यान को सही दिशा में ले जाते हैं. ड्रेको थ्रस्टर्स का मतलब आप ऐसे समझ सकते हैं कि धक्का देने का एक प्रोसेस होता है और इस दौरान हर एक थ्रस्टर अंतरिक्ष के निर्वात में 90 पाउंड बल पैदा करता है.

वहीं इसके बाद आता है कीप-आउट एरिया…जब ड्रैगन ISS से 200 मीटर की दूरी पर पहुंचता है तो यह एक काल्पनिक “कीप-आउट एरिया” में एंट्री करता है..और यहां यह ISS के डॉकिंग पोर्ट के साथ खुद की ट्रेजेक्टरी मिलाता है.

इस पॉइंट पर ड्रैगन कैप्सूल अपने सिस्टम से खुद ही डॉकिंग सिस्टम शुरू करता है और धीरे-धीरे आईएसएस की ओर बढ़ता है. आसान भाषा में कहें तो डॉकिंग का मतलब है ड्रैगन अंतरिक्ष यान का इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पहुंचने के बाद उससे जुड़ जाना.ये जो एक्सियम-4 मिशन शुरू हो रहा है इसमें लॉन्च होने के बार ड्रैगन अंतरिक्ष यान 1 दिन 4 घंटे 49 मिनट का वक्त लेगा और फिर यह इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर डॉक करेगा.वैसे तो सारा सिस्टम ऑटोमेटिक होता है लेकिन अगर जरूरत पड़े तो अंतरिक्ष यात्री मैन्युअली भी कंट्रोल कर सकते हैं.

वहीं अब डॉकिंग पूरी होने के बाद यान को स्थिर होने और सुरक्षा जांच में 1-2 घंटे लगते हैं…फिर ट्रांसफर गेट खुलता है और अंतरिक्ष यात्री ISS में एंट्री करते हैं…तो दोस्तों, इस तरह कई जटिल और सटीक प्रक्रियाओं और वैज्ञानिक गणनाओं के साथ तकनीक की मदद से अंतरिक्ष यात्री हजारों किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में जाते हैं.