फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर की गई घोषणा ने वैश्विक राजनीति में हलचल मचा दी है। उन्होंने ऐलान किया कि फ्रांस सितंबर में फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आधिकारिक मान्यता देगा। यह निर्णय इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) और G7 समूह का ऐसा करने वाला पहला देश बन जाएगा। लंबे समय से इस मान्यता की संभावनाएं जताई जा रही थीं। फ्रांस के इस रुख को जहां फिलिस्तीनी प्रशासन ने सराहा है, वहीं इजरायल ने इसका तीव्र विरोध किया है।
142 देश फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे चुके:
संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से कम से कम 142 देश फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे चुके हैं या देने की योजना बना चुके हैं। हालांकि, अब भी कुछ प्रभावशाली पश्चिमी देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी इस मान्यता से इंकार कर रहे हैं।
यह घोषणा ऐसे समय में सामने आई है जब गाजा पर इज़राइल के युद्ध को लेकर यूरोप में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अब तक की रिपोर्ट के अनुसार, इस संघर्ष में 59,587 फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं, और इज़राइल की ओर से मानवीय सहायता पर लगाई गई सख्त पाबंदियों के चलते भूखमरी की गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई है।
यह मान्यता क्यों महत्वपूर्ण है?

फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देना मुख्य रूप से एक प्रतीकात्मक कदम है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना की परिकल्पना की गई थी, जैसे वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी और पूर्वी यरुशलम उन पर अब भी इज़राइल का कब्ज़ा है।
फिर भी, फ्रांस जैसे देश द्वारा इस मान्यता का समर्थन करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां यूरोप की सबसे बड़ी यहूदी और मुस्लिम आबादी रहती है। ऐसे में यह निर्णय केवल कूटनीतिक नहीं, सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी देता है। यह कदम उस वैश्विक आंदोलन को और बल दे सकता है, जो अब तक अपेक्षाकृत छोटे और इज़राइल की आलोचना करने वाले देशों तक सीमित था।
इसके अतिरिक्त, यह कदम अंतरराष्ट्रीय मंच पर इज़राइल की बढ़ती अलगाव की स्थिति को भी उजागर करता है। गाज़ा में मानवीय संकट, विशेष रूप से भूखमरी की स्थिति, जिसे इस सप्ताह विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने “मानव निर्मित सामूहिक भुखमरी” कहा है, वैश्विक चिंता का विषय बन चुकी है।
मैक्रों ने यह फैसला क्यों लिया?
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पिछले कई महीनों से इस निर्णय की ओर झुकाव दिखा रहे थे। उनका उद्देश्य था कि दो-राष्ट्र समाधान (Two-State Solution) की अवधारणा को जीवित रखा जा सके, भले ही इस पर भारी कूटनीतिक दबाव क्यों न हो।
मैक्रों ने यह निर्णय आगामी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से ठीक पहले लिया है, जिसे फ्रांस और सऊदी अरब मिलकर आयोजित करने जा रहे हैं। उनका इरादा इस पहल के माध्यम से अन्य देशों को प्रेरित करना है, जो फिलहाल इस विषय पर निर्णय नहीं ले पा रहे हैं या दुविधा में हैं।
फ्रांस द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता देने के राजनीतिक कारण
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का यह निर्णय केवल एक कूटनीतिक कदम नहीं, बल्कि उनके दीर्घकालिक राजनीतिक उद्देश्यों से भी जुड़ा है। 2027 में अपना कार्यकाल पूरा करने वाले मैक्रों पहले ही 2033 के आम चुनावों की तैयारी में जुट चुके हैं। ऐसे में फिलिस्तीन को मान्यता देने का फैसला उन्हें घरेलू राजनीति में एक दूरदर्शी और निर्णायक नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास है।
फ्रांस की कुल आबादी में करीब 13% हिस्सा मुस्लिम समुदाय का है, जो पूरे पश्चिमी यूरोप में सबसे अधिक है। मैक्रों, जो एक उदार और समाजवादी नेता माने जाते हैं, इस फैसले के जरिए मुस्लिम समुदाय का समर्थन मजबूत करना चाहते हैं। यह कदम उन्हें सामाजिक समावेशिता और अंतरराष्ट्रीय न्याय के पक्षधर नेता के रूप में पेश करता है।
इज़राइल और अमेरिका ने फिलिस्तीन को मान्यता देने के फैसले की कड़ी आलोचना की
प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने फ्रांस द्वारा फिलिस्तीन को राज्य के रूप में मान्यता देने के फैसले की तीखी आलोचना की है। उनके अनुसार, यह कदम न केवल शांति प्रक्रिया के लिए हानिकारक है, बल्कि हमास जैसे आतंकवादी संगठनों को भी प्रोत्साहित करता है। नेतन्याहू ने कहा कि इससे इज़राइल की सुरक्षा को खतरा बढ़ता है और यह 7 अक्टूबर के हमलों के पीड़ितों का अपमान भी है।
उन्होंने यह भी कहा कि फ्रांस के इस कदम ने अब यूरोपीय संघ के अन्य देशों पर भी दबाव बना दिया है।
अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने फ्रांस के इस निर्णय की कड़ी निंदा की। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर लिखा, “यह लापरवाही भरा फैसला केवल हमास के दुष्प्रचार को बढ़ावा देता है और शांति प्रक्रिया को बाधित करता है। यह 7 अक्टूबर के पीड़ितों के मुंह पर तमाचा है।
आयरलैंड, स्पेन और नॉर्वे पहले ही फिलिस्तीन को मान्यता देने की इच्छा जता चुके हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि यूरोप अब अमेरिका की पारंपरिक नीति से दूरी बना रहा है।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका का रुख लंबे समय से यह रहा है कि फिलिस्तीन को राज्य का दर्जा तभी दिया जाना चाहिए, जब वह इज़राइल को मान्यता दे और आतंकवाद से पूरी तरह किनारा कर ले।भारत का रुख: संतुलन और सद्भाव का रास्ता
भारत का रुख फिलिस्तीन के मुद्दे पर शुरू से ही स्पष्ट और सशक्त रहा है। भारत स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही फिलिस्तीन के अधिकारों का समर्थन करता आया है। वर्ष 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में ऐतिहासिक फिलिस्तीन विभाजन प्रस्ताव का विरोध किया था।
इसके बाद 1974 में भारत ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) को फिलिस्तीनी जनता का एकमात्र वैध प्रतिनिधि माना। वर्ष 1988 में जब यासर अराफात ने फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया, तो भारत, राजीव गांधी के नेतृत्व में, सबसे पहले उसे एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने वाला देश बना। यह भारत के स्थायी और सैद्धांतिक समर्थन का प्रमाण था।हालांकि, पिछले कुछ दशकों में भारत ने इज़राइल के साथ भी अपने संबंधों को मज़बूती दी है। रक्षा, कृषि, तकनीक और रणनीतिक मामलों में भारत-इज़राइल सहयोग बढ़ा है। इसके बावजूद भारत ने फिलिस्तीन के साथ अपनी ऐतिहासिक मित्रता को कभी खत्म नहीं होने दिया।
भारत का वर्तमान रुख संतुलित और विवेकपूर्ण है—वह फिलिस्तीन के अधिकारों और स्वतंत्र राष्ट्र की मांग का समर्थन करता है, वहीं इज़राइल के साथ कूटनीतिक और रणनीतिक साझेदारी को भी महत्व देता है। भारत का यह मध्यम मार्ग उसे एक ऐसा देश बनाता है जो न केवल शांति का पक्षधर है, बल्कि दोनों पक्षों के बीच संवाद और समाधान को भी बढ़ावा देता है।