हाइफा की लड़ाई: इस्राएल की वो जगह जहां भारतीय सैनिकों ने तुर्कों को हराया

भारतीय सेना का इतिहास आज़ादी से पहले भी वीरता और संघर्ष से भरा रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय सैनिकों ने अपनी अदम्य बहादुरी से कई युद्धों में अपनी छाप छोड़ी। उनमें से हाइफा की लड़ाई विशेष महत्व रखती है। यह युद्ध 1918 में लड़ा गया, जब भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर तुर्की के विशाल ओटोमन साम्राज्य के हिस्से हाइफा को जीत दिलाई। आज हाइफा इजरायल में स्थित है, लेकिन उस समय यह क्षेत्र ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था।

 

आज हम इस आर्टिकल में हाइफा युद्ध के बारे में जानेगे-

इजरायल के अस्तित्व से करीब तीन दशकों पहले एक महत्वपूर्ण युद्ध हुआ, जिसमें भारतीय सेना ने निर्णायक भूमिका निभाई। इसे इतिहास में हाइफा की लड़ाई (Battle of Haifa) के नाम से जाना जाता है। यह लड़ाई 23 सितंबर 1918 को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लड़ी गई थी। इस युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना की जोधपुर लांसर्स ने तुर्की साम्राज्य के अधीन शहर हाइफा (जो आज के इजरायल में है) को मुक्त कराया। हाइफा की यह लड़ाई इसलिए भी खास मानी जाती है क्योंकि यह आधुनिक युद्ध में अंतिम बड़ी घुड़सवार सेना की सफलता थी।

आज हाइफा इजरायल के उत्तरी भाग में, भूमध्यसागर के तट पर स्थित एक प्रमुख शहर है। यह इजरायल का तीसरा सबसे बड़ा शहर है और एक महत्वपूर्ण बंदरगाह भी है। हाइफा अपनी विविध संस्कृति, औद्योगिक गतिविधियों और उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए भी प्रसिद्ध है।

 

हाइफा की लड़ाई: पूरा मामला

लगभग 99 साल पहले, सितंबर 1918 में, हाइफा, तुर्कों के कब्जे में 402 साल से था।

फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान ऑटोमन साम्राज्य जर्मनी के साथ मिलकर ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों के खिलाफ लड़ रहा था। जंग के शुरुआती दौर में तुर्की ने इराक और यूरोप में अंग्रेजों को कई जगह हराया था। खलीफा पर हमला होने की वजह से दुनियाभर के मुस्लिम अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे, लेकिन ब्रिटिश सेना में शामिल मुस्लिम सिपाही इससे प्रभावित नहीं हुए।

उस समय भारत में अंग्रेजों की शासन सत्ता थी। ब्रिटिश सरकार ने भारत की तीन रियासतों जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के घुड़सवार सैनिकों को जनरल एडमंड एलनबी की कमान में हाइफा भेजा। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के पिता, ठाकुर सरदार सिंह राठौर, भी शामिल थे।

जनवरी 1917 में ब्रिटेन ने मिस्र से गाजा और फिलिस्तीन पर हमला किया, जिसमें कई भारतीय सैनिक शामिल थे। लगभग छह महीने की कठिन लड़ाई के बाद जर्मनी और ऑटोमन साम्राज्य को हार का सामना करना पड़ा।

हाइफा की लड़ाई की रणनीति

ब्रिटिश सेना के लॉर्ड एलनबी ने हाइफा पर कब्जा करने की योजना बनाई, जिसे “मैगिडो अभियान” के नाम से भी जाना जाता है। इस अभियान के तीन मुख्य केंद्र थे: हाइफा, नजारेथ और मेगिडो। हाइफा पर कब्जा करने की जिम्मेदारी जोधपुर लांसर्स को दी गई।

हाइफा पहुंचने के बाद ब्रिटिश सेना को पता चला कि दुश्मन तो काफी मजबूत और ताकतवर है। फिर ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल ने अपनी सेना को वापस बुला लिया। लेकिन इस पर भारतीय सैनिकों ने ब्रिगेडियर जनरल के आदेश का विरोध किया। भारतीय सैनिकों ने कहा कि हम यहां लड़ने के लिए आए हैं और बगैर लड़े लौटना हमारा अपमान होगा। अंत में उनकी जिद के आगे ब्रिटिश ब्रिगेडियर जनरल को झुकना पड़ा और उनको हाइफा पर हमले की अनुमति दे दी।

23 सितंबर 1918 को, जोधपुर लांसर्स ने अपनी तलवारों और भालों के साथ तुर्की और जर्मनी की आधुनिक मशीनगन से लैस सेना पर आक्रमण किया। उनके पास आधुनिक हथियार नहीं थे, लेकिन अद्भुत साहस और घुड़सवारी कौशल ने उन्हें विजयी बनाया।

 

हाइफा में विजय कैसे हासिल हुई

हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिकों की बहादुरी अद्वितीय थी। मैसूर लैन्सर्स ने खड़ी पहाड़ी पर चढ़ाई करते हुए दुश्मन की बंदूकों और चौकियों पर कब्ज़ा जमाने की बहादुरी दिखाई। वहीं जोधपुर लैन्सर्स ने मुख्य माउंट कार्मल की पोस्ट पर आक्रमण किया।

जोधपुर लैन्सर्स की टुकड़ियां रेलवे लाइन को पार कर रही थीं, लेकिन दुश्मन की मशीनगनों और दलदल जैसी मुश्किलों के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ा। हालात को भांपते हुए सैनिकों ने माउंट कार्मल के बाईं ओर के निचले ढलान से रास्ता बना कर दुश्मन को चकमा दिया।

इन बहादुर प्रयासों के बाद, रेजिमेंट ने तीस दुश्मनों, दो मशीनगनों और दो कैमल बंदूकों को कब्ज़े में लेकर पोस्ट पर नियंत्रण हासिल किया और हाइफा की ओर बढ़ना शुरू किया। जोधपुर लैन्सर्स ने शहर के अंदर प्रवेश कर दुश्मन को चौंका दिया, जबकि मैसूर लैन्सर्स ने पीछे से गोलीबारी कर कवर प्रदान किया।

कुछ ही समय में दुश्मन की सेना टूट गई और हाइफा की लड़ाई में तुर्क और जर्मन सैनिकों ने बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण किया। 1,350 से अधिक दुश्मन सैनिकों को बंदी बनाया गया। इसमें 23 ओटोमन अधिकारी, 2 जर्मन अधिकारी और 664 अन्य सैनिक शामिल थे। तुर्कों के कुल हताहतों का सटीक आंकड़ा आज भी अज्ञात है।

 

  • हाइफा की हार ने ओटोमन साम्राज्य को कमजोर कर दिया: हाइफा की हार के बाद तुर्की की सेना तेजी से कमजोर पड़ गई। यही वजह है कि सिर्फ एक महीने के भीतर ओटोमन साम्राज्य ने आत्मसमर्पण कर दिया।
  • भारतीय सैनिकों की वीरता और बलिदान: इस अभियान में भारतीय सैनिकों को आठ शहीद और 34 घायल हुए। वहीं 60 घोड़े मारे गए और 83 घोड़े घायल हुए।

मेजर दलपत सिंह: हीरो ऑफ हाइफा:

हाइफा की लड़ाई में मेजर दलपत सिंह की अद्भुत वीरता ने उन्हें इतिहास में ‘हीरो ऑफ हाइफा’ के नाम से प्रसिद्ध कर दिया। उनकी बहादुरी और नेतृत्व के लिए उन्हें मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया। इस युद्ध में उनके साहसिक कार्यों के लिए उन्हें हमेशा “हाइफा के नायक” के रूप में याद किया जाता है।

 

हाइफा वॉर मेमोरियल:

आज भी हाइफा में भारतीय सैनिकों के योगदान को याद करने के लिए एक युद्ध स्मारक है, जिसे हाइफा वॉर मेमोरियल कहा जाता है। यह स्मारक उन सभी सैनिकों को श्रद्धांजलि देता है जिन्होंने हाइफा को मुक्त कराने में अपनी जान गंवाई।

हाइफा की लड़ाई केवल साहस और रणनीति का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह दर्शाती है कि भारतीय सैनिकों ने विश्व स्तर पर अपने कौशल और वीरता का लोहा मनवाया।

 

दिल्ली का ‘तीन मूर्ति चौक’ और हाइफा से ऐतिहासिक संबंध

दिल्ली के प्रसिद्ध तीन मूर्ति चौक पर स्थित तीन मूर्ति भवन पहले प्रधानमंत्री का आवास हुआ करता था, जिसे बाद में प्रधानमंत्री संग्राहलय में बदल दिया गया।

तीन मूर्ति चौक पर लगी तांबे की तीन मूर्तियां हैदराबाद, जोधपुर और मैसूर लेंसर्स को दर्शाती हैं। ये तीनों रेजिमेंटें 15 इम्पिरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड का हिस्सा रही हैं। भारत के इन बहादुर योद्धाओं को हाइफा में उनकी वीरता और शौर्य के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।

साल 2018 में, जब इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत दौरे पर आए, तब उन्होंने तीन मूर्ति चौक का दौरा भी किया। इस अवसर पर भारत सरकार ने चौक का नाम बदलकर इजराइली शहर हाइफा के नाम पर रख दिया। अब इसे तीन मूर्ति हाइफा चौक कहा जाता है, हालांकि इसे सिर्फ तीन मूर्ति चौक के नाम से ही जानते हैं।

 

हाइफा पोर्ट और रणनीतिक महत्व:

हाइफा बंदरगाह इजरायल का सबसे व्यस्त पोर्ट है, जहां हर साल लगभग 2 करोड़ टन माल की आवाजाही होती है, हाइफा पोर्ट से इजरायल के कुल समुद्री व्यापार का 30% से अधिक हिस्सा नियंत्रित होता है।

अडानी पोर्ट्स ने 2023 में इजराइल के Gadot Group के साथ मिलकर 1.2 अरब डॉलर में इसकी 70% हिस्सेदारी खरीदी थी।  व्यापारिक दृष्टिकोण से यह पोर्ट अडानी समूह की कुल माल ढुलाई का केवल 3% और राजस्व का 5% हिस्सा देता है, लेकिन इसका रणनीतिक महत्व बहुत अधिक है।

यह पोर्ट इजरायल के औद्योगिक केंद्रों से सीधे रेल और सड़क मार्गों से जुड़ा है और गहरे पानी वाला होने के कारण बड़े जहाजों को संभाल सकता है। हाइफा पोर्ट, इजरायल के नौसेना अड्डों के पास स्थित है और यह देश की पनडुब्बी फ्लीट का ऐतिहासिक ठिकाना भी रहा है, जिससे इसका सामरिक महत्व और बढ़ जाता है।

भारत, इजरायल, UAE, सऊदी अरब, अमेरिका और यूरोपीय संघ के सहयोग से इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर (IMEC) की योजना बनाई गई है। इस कॉरिडोर का उद्देश्य भारत को इजरायल और यूरोप से जोड़ना है, ताकि रेड सी और स्वेज नहर के विकल्प के रूप में एक नया व्यापार मार्ग स्थापित किया जा सके।