गोवा में सांडों की लड़ाई को वैध ठहराने की मांग: विधायकों की दलीलें और संवैधानिक प्रश्न

पिछले सप्ताह गोवा विधानसभा में हुई एक महत्वपूर्ण चर्चा के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही दलों के विधायकों ने सांडों की लड़ाई, जिसे स्थानीय भाषा में धिरियो या धिरी कहा जाता है, को कानूनी मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता पर बल दिया।

विधायकों का कहना था कि यह परंपरा गोवा की सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग है। उनका तर्क था कि यदि इसे कानूनी दर्जा मिल जाता है तो इस खेल का आयोजन करने वालों के विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होगी और यह प्रथा खुले तौर पर संरक्षित और नियंत्रित वातावरण में आगे बढ़ सकेगी।

इतिहास के संदर्भ में कहा जाता है कि सांडों की लड़ाई की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। कुछ ऐतिहासिक प्रमाण इस बात की ओर संकेत करते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के दौरान भी इस प्रकार की गतिविधियाँ खेल और मनोरंजन के उद्देश्य से आयोजित की जाती थीं। गोवा में यह प्रथा विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में लंबे समय से चली आ रही है और स्थानीय त्योहारों एवं सामाजिक आयोजनों से गहराई से जुड़ी हुई है।

 

धिरियो का इतिहास और परंपरा:

गोवा में बैल लड़ाई की परंपरा, जिसे स्थानीय रूप से धिरियो कहा जाता है, पुर्तगाली शासनकाल से प्रचलित मानी जाती है। यह आयोजन मुख्यतः धान की कटाई के बाद गाँवों में किया जाता था और विशेषकर चर्च से जुड़े मेलों एवं वार्षिक उत्सवों के दौरान इसका महत्व और भी बढ़ जाता था।

इस खेल में दो प्रशिक्षित बैलों को आमने-सामने लाया जाता है। दोनों बैल अपने सींगों और बल का प्रयोग करते हुए एक-दूसरे को पछाड़ने का प्रयास करते हैं। इस मुकाबले में विजेता वही बैल होता है जो अंत तक मैदान में डटा रहता है और पीछे नहीं हटता। परंपरागत रूप से इसमें न तो बैलों को गंभीर चोट पहुँचाने की मंशा होती थी और न ही उनका वध किया जाता था; बल्कि इसे शक्ति, सहनशक्ति और प्रशिक्षण का प्रदर्शन माना जाता था।

इतिहास में धिरियो के कई आयोजन प्रसिद्ध रहे हैं। विशेष रूप से तलेगाँव क्षेत्र का वार्षिक मुकाबला सबसे प्रसिद्ध माना जाता था। इस आयोजन में हजारों लोग शामिल होते थे और यह न केवल एक खेल बल्कि सामुदायिक मेल-जोल और उत्सव का भी अवसर होता था।

धिरियो गोवा की ग्रामीण संस्कृति से गहराई से जुड़ा रहा है और लंबे समय तक इसे वहाँ की सामाजिक पहचान और लोक मनोरंजन का अभिन्न अंग माना गया।

घटना और कानूनी चुनौती:

सितंबर 1996 में धिरियो के एक आयोजन के दौरान एक हिंसक बैल ने जेवियर फर्नांडीस नामक व्यक्ति की जान ले ली। इस घटना के बाद इस परंपरा का विरोध तेज हुआ और इसे लेकर सामाजिक बहस शुरू हो गई।

इसी सिलसिले में एनजीओ ‘पीपल फॉर एनिमल्स’ ने मुंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर की। याचिका में तर्क दिया गया कि सांडों की लड़ाई पूरी तरह अवैध है और यह पशुओं के प्रति क्रूरता की श्रेणी में आती है।

हाई कोर्ट का निर्णय:

मुंबई हाई कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए माना कि धिरियो का आयोजन अवैध है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस प्रकार की लड़ाइयों का आयोजन नहीं किया जा सकता और राज्य सरकार को इन्हें रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए।

 

गुप्त आयोजन और आधुनिक माध्यमों का उपयोग:

न्यायालय के आदेश और कानूनी रोक के बावजूद गोवा के तटीय इलाकों में धिरियो का आयोजन जारी है। पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए आयोजक अब इसे गुप्त रूप से आयोजित करते हैं।
आम तौर पर मुकाबले के स्थान की जानकारी व्हाट्सएप या फेसबुक ग्रुप्स पर केवल कुछ घंटे पहले साझा की जाती है, ताकि प्रशासन को समय रहते इसकी भनक न लग सके।

 

धिरियो के वैधीकरण पर बहस:

समर्थकों का मानना है कि धिरियो गोवा की सांस्कृतिक धरोहर है और इसे एक पारंपरिक खेल के रूप में देखा जाना चाहिए। वे इसकी तुलना मानव बॉक्सिंग से करते हैं और तर्क देते हैं कि यह पूरी तरह क्रूर नहीं है। उनके अनुसार, यदि खेल को नियमन और सुरक्षा मानकों के तहत आयोजित किया जाए, जैसे कि बैलों के सींगों पर कैप लगाना, तो नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

वैधीकरण से पर्यटन को प्रोत्साहन मिलेगा और इससे स्थानीय किसानों को भी लाभ होगा, जो विशेष रूप से इस खेल के लिए बैलों का पालन-पोषण करते हैं। समर्थकों का मानना है कि सरकार को इस खेल को नियमित करने के लिए विशेष कानून बनाने चाहिए। कुछ प्रस्तावों में समर्पित स्टेडियमों का निर्माण और औपचारिक सट्टेबाजी प्रणाली शुरू करना भी शामिल है।

विरोध और पशु कल्याण की चिंताएँ:

पशु अधिकार कार्यकर्ता धिरियो को एक हिंसक और क्रूर खेल बताते हैं। उनका कहना है कि इससे न केवल बैलों को शारीरिक चोट पहुँचती है, बल्कि यह उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता है। कार्यकर्ताओं का तर्क है कि इस प्रकार की गतिविधियों को बढ़ावा देने से समाज में क्रूरता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है और लोग पशुओं की पीड़ा के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं।

पीटा इंडिया (PETA India) जैसी संस्थाएँ इस खेल पर प्रतिबंधों के कड़े प्रवर्तन की मांग कर रही हैं। साथ ही, वे सरकार और समाज से अपील कर रही हैं कि पशु लड़ाइयों के खिलाफ जनजागरूकता अभियान चलाए जाएँ ताकि इन्हें पूरी तरह समाप्त किया जा सके।

 

सांडों की लड़ाई में सट्टेबाजी और घटनाएँ

पूर्व विधायक ग्रेसियस का कहना है कि सांडों की लड़ाई पर कानूनी प्रतिबंध केवल कागज़ों तक सीमित है। वास्तविकता यह है कि अब इन मुकाबलों में बड़े पैमाने पर सट्टेबाजी होने लगी है। यहां तक कि यूरोप में रहने वाले गोवा के प्रवासी भी इन लड़ाइयों में पैसे लगाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि धिरियो केवल स्थानीय मनोरंजन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह आर्थिक लाभ और जुए का माध्यम भी बन गया है।

हाल की घटनाएँ और पुलिस कार्रवाई

जनवरी 2024 में आयोजित एक मुकाबले के दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। इसी वर्ष अप्रैल में एक अन्य आयोजन में एक सांड की मृत्यु हो गई। इन घटनाओं के बाद पुलिस ने कई मामले दर्ज किए हैं। इसके बावजूद, मुकाबले और सट्टेबाजी की गतिविधियाँ जारी रहने से यह स्पष्ट होता है कि प्रतिबंधों का प्रभावी क्रियान्वयन अभी भी चुनौती बना हुआ है।

 

सुप्रीम कोर्ट का 2014 जल्लिकट्टू फैसला

2014 के Animal Welfare Board of India vs A. Nagaraja मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि पशुओं का जीवन भी संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में आता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सभी जीवित प्राणियों, जिसमें पशु भी शामिल हैं, की जन्मजात गरिमा (inherent dignity) है। उन्हें शांतिपूर्वक जीने का और अपने कल्याण की रक्षा करने का अधिकार प्राप्त है।

जल्लिकट्टू को मिला कानूनी संरक्षण (2023):

2023 में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने उन याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें तमिलनाडु के 2017 के जल्लिकट्टू कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। अदालत ने इस कानून को वैध ठहराते हुए कहा कि जल्लिकट्टू एक सांस्कृतिक परंपरा है और इसे कानूनी मान्यता दी जा सकती है

 

निष्कर्ष
धिरियो गोवा की एक पुरानी और लोकप्रिय परंपरा है, जिसे समर्थक सांस्कृतिक धरोहर मानते हैं, जबकि विरोधी इसे पशु क्रूरता का प्रतीक बताते हैं। प्रतिबंधों के बावजूद इस खेल का जारी रहना यह दर्शाता है कि संस्कृति, मनोरंजन, आर्थिक हित और पशु कल्याण इन सभी पहलुओं के बीच गहरी खींचतान मौजूद है। आगे का रास्ता केवल तभी संभव है जब सरकार, समाज और पशु अधिकार संगठनों के बीच संतुलित समाधान निकाला जाए, जिससे परंपरा का सम्मान भी बना रहे और पशुओं के अधिकारों और सुरक्षा की अनदेखी भी न हो।