भारत-चीन के लिम्पुलेख दर्रे से व्यापार पर नेपाल की आपत्ति: जानिए विवाद का पूरा कारण

लिपुलेख दर्रे के माध्यम से सीमा व्यापार फिर से शुरू करने को लेकर भारत, चीन और नेपाल के बीच कूटनीतिक तनातनी देखने को मिल रही है। मंगलवार को भारत और चीन ने लिपुलेख दर्रे सहित दो अन्य व्यापारिक मार्गों के जरिए सीमा व्यापार को बहाल करने पर सहमति जताई थी।

इस निर्णय पर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने विरोध किया और कहा कि वे देश के नए व‍िवादित नक्‍शे की फिर से पुष्टि करते हैं जिसे संविधान शामिल किया गया है। इस राजनीतिक नक्‍शे में लिंपियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी तीनों ही नेपाल के अभिन्‍न हिस्‍सा हैं।

हालांकि, भारत ने काठमांडू की इस आपत्ति को सिरे से खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि नेपाल का दावा न तो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है और न ही तर्कसंगत। यह घटनाक्रम न केवल क्षेत्रीय व्यापारिक सहयोग बल्कि कूटनीतिक समीकरणों को भी प्रभावित कर सकता है।

 

लिपुलेख व्यापार समझौते पर नेपाल की पुरानी नाराज़गी

भारत और चीन के बीच लिपुलेख दर्रे के माध्यम से व्यापार बढ़ाने पर जब-जब सहमति बनी थी, तब नेपाल ने असंतोष जताया था। एसे ही 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीजिंग दौरे के दौरान एक समझौता हुआ था। उस समय नेपाली युवाओं ने कालापानी में विरोध प्रदर्शन किया और नेताओं ने नेपाली संसद में आपत्ति दर्ज कराई। चीन के ग्लोबल टाइम्स ने उस समय लिखा था कि बीजिंग को भारत-नेपाल संबंधों की संवेदनशीलता को समझते हुए इस मामले में ‘तटस्थ’ रहना चाहिए।

 

क्या है लिपुलेख दर्रा?

लिपुलेख दर्रा हिमालय की ऊँचाइयों पर स्थित एक रणनीतिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दर्रा है। यह दर्रा भारत, नेपाल और चीन की त्रि-सीमा के पास उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में समुद्र तल से लगभग 5,334 मीटर (17,500 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है।

भौगोलिक रूप से यह दर्रा भारत को तिब्बत से जोड़ता है और कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए एक पारंपरिक मार्ग के रूप में जाना जाता है। धार्मिक महत्व के साथ-साथ इसका ऐतिहासिक महत्व भी है, क्योंकि प्राचीन काल से यह भारत और तिब्बत के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमुख मार्ग रहा है।

लिपुलेख दर्रा तीर्थयात्रियों के लिए इसलिए खास है क्योंकि यह सीधे पवित्र कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील तक पहुँचने का रास्ता उपलब्ध कराता है।

साथ ही, यह दर्रा भारत, नेपाल और चीन के त्रिकोणीय भूभाग में स्थित होने के कारण भू-राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील माना जाता है और यही वजह है कि इसे लेकर समय-समय पर विवाद भी सामने आते हैं।

 

क्या है भारत – नेपाल लिपुलेख विवाद-

लिपुलेख विवाद की उत्पत्ति 1816 की सुगौली संधि से मानी जाती है, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच हुई थी। इस संधि में काली नदी को भारत-नेपाल सीमा के रूप में निर्धारित किया गया था। नेपाल का दावा है कि काली नदी का स्रोत लिपुलेख दर्रे से है, इसलिए लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा (लगभग 370 वर्ग किमी) उसका हिस्सा हैं। नेपाल का तर्क है कि ब्रिटिश काल में सीमा का निर्धारण गलत तरीके से किया गया था।

 

भारत का दृष्टिकोण

भारत इस दावे को खारिज करता है। भारत का कहना है कि काली नदी का उद्गम कालापानी गांव के पास होता है, जहां सहायक नदियां मिलती हैं। ऐतिहासिक दस्तावेज़, जैसे 1879 का सर्वे ऑफ इंडिया का मानचित्र, इस क्षेत्र को भारत का हिस्सा दिखाता है। भारत का यह भी तर्क है कि 1830 के दशक से यह क्षेत्र प्रशासनिक रूप से भारत के अधीन रहा है।

2020 में नेपाल ने तीन रणनीतिक क्षेत्रों का नया नक्शा जारी किया

काठमांडू द्वारा अपने क्षेत्रीय दावों को प्रस्तुत करने का यह पहला मामला नहीं था। 18 जून 2020 को नेपाल ने तीन रणनीतिक क्षेत्रों को शामिल करते हुए अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसे भारत ने “अस्वीकार्य” करार दिया।

उसी वर्ष, नेपाल ने लिपुलेख दर्रे तक भारत द्वारा बनाई गई 80 किलोमीटर लंबी सड़क का भी विरोध किया, जो नई दिल्ली और कैलाश-मानसरोवर के बीच सबसे छोटा मार्ग है। इससे पहले, 2019 में भारत ने अपना नया नक्शा प्रकाशित किया था, जिसमें कालापानी को अपने क्षेत्र में दिखाया गया, जिसपर काठमांडू ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी।

 

लिपुलेख विवाद में चीन का तटस्थ रुख, नेपाल के लिए परेशानी :

लिपुलेख विवाद में चीन का एंगल महत्वपूर्ण बन गया है। भारत और चीन ने लिपुलेख दर्रे के साथ-साथ शिपकी ला और नाथु ला दर्रों के माध्यम से सीमा व्यापार को फिर से शुरू करने पर सहमति जताई, जो 18 और 19 अगस्त को चीनी विदेश मंत्री वांग यी के भारत दौरे के दौरान तय हुआ। यह फैसला नेपाल के लिए असुविधाजनक रहा, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि चीन इस मुद्दे पर उसका समर्थन करेगा।

 

हालिया विरोध पर भारत की प्रतिक्रिया:

2025 में भारत ने नेपाल के दावों को असमर्थनीय’ और ‘कृत्रिम’ करार देते हुए खारिज कर दिया। भारत का कहना है कि 1954 से इसी मार्ग के माध्यम से भारत-चीन के बीच व्यापार होता रहा है, जिस पर नेपाल ने उस समय कोई आपत्ति नहीं जताई थी।

 

लिपुलेख दर्रा भारत के लिए महत्व:

लिपुलेख दर्रा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित है और भारत, नेपाल और चीन (तिब्बत) की त्रिसीमा के नज़दीक आता है। यह दर्रा सामरिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्राचीन काल से यह भारत और तिब्बत के बीच व्यापार और कैलाश-मानसरोवर तीर्थयात्रा का प्रमुख मार्ग रहा है।

सामरिक दृष्टि से यह भारतीय सेना को चीन सीमा तक तेज़ पहुंच और सुरक्षा प्रदान करता है। 1954 से यह सीमा व्यापार मार्ग के रूप में भी इस्तेमाल होता रहा है। 2020 में लिपुलेख तक सड़क निर्माण ने तीर्थयात्रियों और सैन्य गतिविधियों दोनों के लिए इस क्षेत्र का महत्व और बढ़ा दिया है।