तमिलनाडु में हिंदी होर्डिंग्स और फिल्मों पर बैन का प्रस्ताव: जानें क्या हैं बिल के मायने

तमिलनाडु सरकार हिंदी गाने, फिल्मों, और होर्डिंग्स पर बैन लगाने के लिए एक विधेयक लाने की तैयारी में थी, लेकिन विरोध के बाद सरकार ने इस पर रोक लगा दी है। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया था कि राज्य सरकार पूरे तमिलनाडु में हिंदी के होर्डिंग्स, बोर्ड, फिल्मों और गानों पर रोक लगाने की तैयारी कर रही है।

Tamil Nadu proposes ban on Hindi hoardings and films

जानकारी के अनुसार, सरकार ने इस प्रस्तावित विधेयक पर चर्चा के लिए मंगलवार रात कानूनी विशेषज्ञों के साथ एक आपात बैठक बुलाई थी, जिसके बाद अटकलें लगाई जा रही थीं कि बुधवार को बिल पेश किया जाएगा। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ। तमिलनाडु विधानसभा का विशेष सत्र 14 अक्टूबर से शुरू होकर 17 अक्टूबर तक चलेगा। इस दौरान अनुपूरक बजट अनुमान भी पेश किए जाने की संभावना है।

BJP ने डीएमके सरकार के इस कदम को “बेतुका” और “भ्रम फैलाने वाला” बताया है, जबकि डीएमके सरकार का तर्क है कि राज्य में हिंदी थोपने के किसी भी प्रयास का विरोध करना उनका संवैधानिक अधिकार है।

 

तमिलनाडु में हिंदी विवाद फिर गरमाया:

तमिलनाडु की स्टालिन सरकार और केंद्र सरकार के बीच हिंदी भाषा के इस्तेमाल को लेकर टकराव लगातार बढ़ता जा रहा है। इस साल मार्च में मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने राज्य बजट 2025-26 में एक प्रतीकात्मक कदम उठाते हुए रुपये के राष्ट्रीय प्रतीक ‘₹’ की जगह तमिल अक्षर ‘ரூ’ (रुबाई का पहला अक्षर, जिसका अर्थ रुपये होता है) का इस्तेमाल किया था।

सीएम स्टालिन लंबे समय से केंद्र की “तीन भाषा नीति” (Three Language Policy) का विरोध करते रहे हैं। उनका कहना है कि भाजपा सरकार हिंदी को थोपने की कोशिश कर रही है, जिससे राज्यों की भाषाई विविधता और संघीय ढांचे को नुकसान होता है। स्टालिन ने यह भी दावा किया कि तमिलनाडु की “दो भाषा नीति” (तमिल और अंग्रेजी) ने शिक्षा, कौशल विकास और रोजगार के क्षेत्र में राज्य को लाभ पहुंचाया है।

यह विवाद ऐसे समय में फिर से चर्चा में आया है जब राज्य सरकार पर हिंदी बोर्ड और विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव को लेकर अटकलें तेज हैं।

 

तमिलनाडु का दो-भाषा मॉडल लागू:

तमिलनाडु में लंबे समय से “दो-भाषा फॉर्मूला” लागू है  पहली भाषा तमिल, जो राज्य की मातृभाषा है, और दूसरी अंग्रेजी, जो प्रशासनिक और अंतरराष्ट्रीय संचार के लिए उपयोग की जाती है।

राज्य सरकार का दावा है कि यह मॉडल बेहद सफल साबित हुआ है और छात्रों पर अनावश्यक भाषाई बोझ नहीं डालता। सरकार का तर्क है कि इस प्रणाली ने शिक्षा की गुणवत्ता और रोजगार के अवसरों को बेहतर बनाया है।

मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन और शिक्षा मंत्री दोनों ने साफ कहा है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 का तीन-भाषा फॉर्मूला, केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को थोपने की कोशिश है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि तमिलनाडु अपने मौजूदा दो-भाषा फॉर्मूले को बरकरार रखेगा और किसी भी सूरत में हिंदी को अनिवार्य नहीं बनने देगा।

 

क्या है 3 लैंग्वेज फॉर्मूला ?

भारत में लागू त्रिभाषा सूत्र एक ऐसी शैक्षिक नीति है, जिसका उद्देश्य छात्रों में भाषाई विविधता को बढ़ावा देना और राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना है।

इस नीति के तहत विद्यार्थियों को तीन भाषाएँ सीखनी होती हैं मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, हिंदी (या किसी अन्य भारतीय भाषा), और अंग्रेजी (या किसी विदेशी भाषा)।

इस सूत्र की नींव कोठारी आयोग (1964-66) की सिफारिशों पर रखी गई थी, जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में औपचारिक रूप से शामिल किया गया। इसके बाद नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) में भी इसे बरकरार रखा गया है, हालांकि अब राज्यों और छात्रों को भाषा चयन में अधिक लचीलापन दिया गया है। नीति में यह शर्त भी जोड़ी गई है कि तीनों में से कम से कम दो भाषाएँ भारत की ही हों।

हालाँकि, नीति पर राजनीतिक और सांस्कृतिक मतभेद बने हुए हैं। विशेष रूप से तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इसका विरोध किया है, यह तर्क देते हुए कि यह नीति हिंदी थोपने की कोशिश है और उनके दो-भाषा फॉर्मूले (तमिल और अंग्रेजी) में हस्तक्षेप करती है। इसीलिए, कई राज्यों ने इस नीति को पूरी तरह लागू करने से इंकार किया है, जिससे देश में भाषा नीति पर केंद्र और राज्यों के बीच एक पुरानी बहस फिर से उभर आई है।

 

राज्यों और स्कूलों को तीन भाषाएँ चुनने की आज़ादी:

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत केंद्र सरकार ने राज्यों और स्कूलों को भाषाओं के चयन में लचीलापन प्रदान किया है। अब तीन-भाषा सूत्र के तहत, प्रत्येक स्कूल और राज्य को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे छात्रों के लिए कौन-सी तीन भाषाएँ पढ़ाना चाहते हैं, बशर्ते उनमें कम से कम दो भारतीय भाषाएँ शामिल हों।

तीन-भाषा चयन के प्रमुख नियम:

  • दो भारतीय भाषाएँ अनिवार्य: छात्रों को सिखाई जाने वाली तीन भाषाओं में से कम से कम दो भाषाएँ भारत की अपनी होनी चाहिए।
  • मातृभाषा को प्राथमिकता: नीति के अनुसार, कक्षा 5 तक (और संभव हो तो कक्षा 8 तक) शिक्षा मातृभाषा या स्थानीय भाषा में दी जानी चाहिए।
  • राज्य और छात्रों की स्वतंत्रता: राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह तय करने की स्वतंत्रता है कि कौन-सी भाषाएँ उनके पाठ्यक्रम में शामिल होंगी।
  • भाषा बदलने की सुविधा: छात्रों को कक्षा 6 या 7 में अपनी सीखी जा रही किसी भाषा को बदलने की भी अनुमति होगी।

यह प्रावधान न केवल भाषाई विविधता को सम्मान देता है, बल्कि छात्रों में बहुभाषी क्षमता और सांस्कृतिक समझ को भी प्रोत्साहित करता है।

 

तमिलनाडु में हिंदी विरोध आंदोलन का इतिहास:

1937 में ब्रिटिश शासन के दौरान जब मद्रास प्रेसिडेंसी (अब तमिलनाडु) में स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की गई, तो इसका तीखा विरोध हुआ। इस आंदोलन की अगुवाई द्रविड़ कड़गम (Dravidar Kazhagam) और बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने की। जनविरोध इतना व्यापक था कि 1940 में सरकार को स्कूलों से हिंदी की अनिवार्यता हटा लेनी पड़ी।

1965 में केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने की कोशिश ने एक बार फिर तमिलनाडु में आंदोलन की लहर पैदा कर दी। इस दौरान छात्रों ने सबसे आगे रहकर विरोध प्रदर्शन किए, जिनमें कई की जानें भी गईं। स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और अंग्रेजी को हिंदी के साथ सह-आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा गया।

यह आंदोलन न केवल तमिलनाडु की राजनीतिक चेतना का प्रतीक बना, बल्कि भारत की भाषा नीति को भी स्थायी रूप से प्रभावित करने वाला ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ।

 

तमिलनाडु के CM स्टालिन का बयान: “हिंदी थोपने से खत्म हो रही हैं भारतीय भाषाएं”

फरवरी में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने केंद्र की “हिंदी थोपने” की नीति पर कड़ा हमला बोला। उन्होंने कहा कि जबरन हिंदी थोपने की वजह से पिछले सौ वर्षों में देश की करीब 25 उत्तर भारतीय भाषाएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं।

स्टालिन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर पोस्ट करते हुए लिखा, “दूसरे राज्यों के मेरे प्रिय बहनों और भाइयों, क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है?” उन्होंने आरोप लगाया कि भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खरिया, खोरठा, कुरमाली, कुरुख और मुंडारी जैसी भाषाएं अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।

उन्होंने आगे कहा कि “हिंदी थोपने का विरोध जारी रहेगा क्योंकि हिंदी एक मुखौटा है और संस्कृत उसका छुपा हुआ चेहरा।” स्टालिन के इस बयान ने फिर से भारत की भाषा नीति और भाषाई विविधता के संरक्षण पर राष्ट्रीय बहस को तेज कर दिया है।

 

तमिलनाडु में हिंदी होर्डिंग्स और फिल्मों पर बैन का प्रस्ताव: क्या हैं बिल के मायने-

तमिलनाडु में प्रस्तावित विधेयक, जो हिंदी होर्डिंग्स और फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ा है, राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टिकोणों से बेहद अहम माना जा रहा है। यह कदम राज्य की उस ऐतिहासिक परंपरा को आगे बढ़ाता है, जिसमें तमिलनाडु ने हमेशा “भाषाई थोपने” का विरोध किया है और अपनी क्षेत्रीय पहचान को प्राथमिकता दी है।

यह बिल तमिलनाडु के राजनीतिक दलों, खासकर डीएमके (DMK), के लिए सांस्कृतिक स्वायत्तता के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह विधेयक पारित होता है, तो यह राज्य के सांस्कृतिक परिदृश्य को एक नया रूप दे सकता है। साथ ही, डीएमके को तमिल पहचान और भाषाई अधिकारों की रक्षा के लिए अपने राजनीतिक वादे को पूरा करने का श्रेय भी मिलेगा।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह कदम केंद्र की “सांस्कृतिक केंद्रीकरण” नीतियों के खिलाफ तमिलनाडु के लंबे संघर्ष का हिस्सा है, जो हिंदी के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने की दिशा में एक और ठोस कदम साबित हो सकता है।

 

निष्कर्ष:

तमिलनाडु में हिंदी होर्डिंग्स और फिल्मों पर प्रस्तावित प्रतिबंध राज्य की सांस्कृतिक और भाषाई प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए उठाया गया कदम है। यह कदम भाषाई बहुलवाद और क्षेत्रीय भाषाओं की पहचान को बनाए रखने का प्रयास है, लेकिन साथ ही, किसी भी भाषा का बहिष्कार करना सकारात्मक नहीं माना जाता और यह पूरे देश में सांस्कृतिक एकता के दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण हो सकता है।