दिवाली के पास आते ही उत्तराखंड में उल्लुओं के अवैध शिकार को रोकने के लिए वन विभाग सतर्क हो गया है। त्यौहार के दौरान स्थानीय अंधविश्वासों के कारण इन पक्षियों की मांग बढ़ जाती है, बढे मांग के कारण उल्लुओं के शिकार और तस्करी बढ़ जाती है, जो वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत पूरी तरह से संरक्षित हैं। इसलिए अधिकारियों ने कर्मचारियों की छुट्टियाँ रद्द कर दी हैं और पूरे अभयारण्य में कड़ी निगरानी बढ़ा दी है।

उल्लुओं को लेकर क्या अन्धविश्वास है?
उल्लू को मां लक्ष्मी का वाहन माना जाता है। लेकिन कुछ लोग दीपावली के समय तंत्र साधना या सिद्धि पाने के लिए उल्लू की बलि देने या उसके अंगों का उपयोग करने से धन प्राप्त होने का झूठा विश्वास करते हैं। इसी अंधविश्वास के चलते हर साल दीपावली से पहले उल्लुओं का शिकार और अवैध व्यापार बढ़ जाता है। असल में, उल्लू की हत्या से देवी प्रसन्न नहीं होती; यह केवल एक अन्धविश्वास है।
क्या है प्रशासन की तैयारी?
इस समस्या से निपटने के लिए प्रशासन पूरी तरह तैयार है। फील्ड स्टाफ को हाई अलर्ट पर रखा गया है और दिवाली तक सभी गैर-ज़रूरी छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं। वरिष्ठ अधिकारियों ने पूरे क्षेत्र में कड़ी जांच और निगरानी के आदेश दिए हैं।
राजाजी टाइगर रिजर्व (RTR) के निदेशक कोको रोज़ ने सभी रेंजरों को लिखे पत्र में इन उपायों की पुष्टि की है। अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक (प्रशासन) विवेक पांडे ने कहा, “हमने अपने कर्मचारियों को सतर्क कर दिया है और अत्यधिक सावधानी बरती जा रही है।”
वन टीमों को संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी के लिए कैमरा ट्रैप और ड्रोन जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही, वन्यजीवों की अवैध आवाजाही रोकने के लिए हर बैरियर पर वाहनों की जांच तेज़ कर दी गई है।
दिवाली के समय उल्लुओं के मांग और दाम में बेतहाशा वृद्धि:
दिवाली के समय उल्लुओं की मांग और कीमत में बहुत बढ़ोतरी हो जाती है। यह अवैध व्यापार पूरी तरह अंधविश्वास पर निर्भर करता है। हालांकि यह गैरकानूनी है, लेकिन काले बाज़ार में इस समय उल्लुओं की खरीद-फरोख्त बहुत तेज़ हो जाती है।
वन्यजीव संरक्षण समूहों और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अवैध रूप से पकड़ा गया एक उल्लू 5,000 रुपये से लेकर 1 करोड़ रुपये तक बिक सकता है, खासकर दिवाली के आसपास। सबसे ज्यादा मांग “पांच पंजे वाले” और “ढाई किलो वजन वाले” उल्लुओं की होती है। विशेषज्ञों के अनुसार, यूपी, एमपी, राजस्थान और बंगाल से लेकर उत्तराखंड तक इनकी तस्करी होती है। तस्कर इन्हें जंगलों से पकड़कर तांत्रिकों और कुछ पहुंचवाले लोगों तक बेचते हैं।
उल्लू के बारे में:
उल्लू एक ऐसा पक्षी है जो दिन की तुलना में रात में बेहतर देख सकता है। इसकी गर्दन पूरी तरह घूम सकती है, जिससे यह चारों दिशाओं में आसानी से देख पाता है। इसके कान बहुत तेज़ होते हैं, इसलिए यह रात में थोड़ी-सी भी आवाज़ सुनकर अपने शिकार को पकड़ लेता है। इसके पैरों में चार-चार उंगलियाँ और टेढ़े नाखून होते हैं, जो शिकार को मजबूती से दबोचने में मदद करते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में उल्लू की अहम भूमिका:
उल्लू पारिस्थितिकी तंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यह कीटों और छोटे जीवों की संख्या को नियंत्रित करता है। इसी वजह से उल्लू को किसानों का मित्र भी कहा जाता है, क्योंकि यह फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले चूहों और कीड़ों को खा जाता है। उल्लू एक शिकारी पक्षी है, जो चूहे, मेंढक, छिपकली और अन्य छोटे जीवों को खाकर अपना जीवन बिताता है। इसकी औसत आयु लगभग 25 साल होती है, और अपने जीवनकाल में यह प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है।
दुनियाँ में संकटग्रस्त उल्लू की प्रजातियां:
दुनियाभर में उल्लुओं की लगभग 250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से करीब 50 प्रजातियाँ संकटग्रस्त मानी जाती हैं। भारत में लगभग 36 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, और इनमें से कई प्रजातियाँ खतरे की सूची में शामिल हैं।
अवैध व्यापार में सबसे ज़्यादा प्रभावित 16 प्रजातियाँ हैं, जिनमें मुख्य रूप से ब्राउन हॉक उल्लू, कॉलर वाला उल्लू, चित्तीदार उल्लू, रॉक ईगल उल्लू, धब्बेदार कास्ट उल्लू, एशियाई बैरर्ड उल्लू और बोर्न उल्लू शामिल हैं। इन प्रजातियों पर लगातार शिकार और तस्करी का खतरा बना हुआ है।
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 क्या है?
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जंगली जानवरों और पौधों की सुरक्षा के लिए बनाया गया कानूनी ढांचा है। इसका उद्देश्य इन जानवरों और पौधों के प्राकृतिक आवास को बचाना, उनके व्यापार को नियंत्रित करना और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना है। अधिनियम में उन जानवरों और पौधों की सूचियाँ दी गई हैं जिन्हें अलग-अलग स्तर की सुरक्षा दी जाती है।
संवैधानिक प्रावधान:
- 42वें संशोधन (1976) के बाद वन और वन्यजीवों का संरक्षण राज्य सूची से समवर्ती सूची में आ गया।
- संविधान का अनुच्छेद 51A(g) कहता है कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह वनों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे।
- अनुच्छेद 48A के अनुसार राज्य का दायित्व है कि वह पर्यावरण, वनों और वन्य जीवन की सुरक्षा और सुधार के प्रयास करे।
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूचियाँ:
- अनुसूची I: इस सूची में वे प्रजातियाँ शामिल हैं जो बहुत ज्यादा लुप्तप्राय हैं और जिन्हें सबसे ज्यादा सुरक्षा की जरूरत है। इनका शिकार पूरे देश में पूरी तरह प्रतिबंधित है, सिवाय उस स्थिति में जब वे मानव जीवन के लिए खतरा बनें या गंभीर बीमारी से ग्रस्त हों। जैसे: काला हिरण, हिम तेंदुआ, हिमालयी भालू, उल्लू और एशियाई चीता।
- अनुसूची II: इसमें आने वाले जानवरों को भी उच्च स्तर की सुरक्षा दी जाती है। इनके व्यापार पर सख्त प्रतिबंध होता है। जैसे: असमिया मकाक, हिमालयी काला भालू और भारतीय नाग (कोबरा)
- अनुसूची III और IV: इन सूचियों में वे जानवर शामिल हैं जो अभी संकटग्रस्त नहीं हैं, लेकिन संरक्षण की आवश्यकता रखते हैं। जैसे: चीतल, भड़ल (नीली भेड़), लकड़बग्घा, सांभर(अनुसूची III में) और राजहंस, खरगोश, बाज़, किंगफिशर, मैगपाई और हॉर्सशू क्रैब(अनुसूची IV में)
- अनुसूची V: इसमें वे जानवर रखे गए हैं जो फसलों या खाद्य पदार्थों को नुकसान पहुँचाते हैं। इनका शिकार किया जा सकता है। जैसे: कौवा, फल चमगादड़, चूहा और मूषक।
- अनुसूची VI: यह सूची कुछ दुर्लभ पौधों की रक्षा के लिए है। इनके उगाने, बेचने या ले जाने के लिए सरकार की अनुमति जरूरी होती है। जैसे: बेडडोम्स साइकैड, ब्लू वांडा (नीला ऑर्किड), रेड वांडा (लाल ऑर्किड), कुथ, स्लिपर ऑर्किड और पिचर प्लांट।
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के प्रमुख संशोधन:
- 1991 संशोधन: वन्यजीव अपराधों के लिए सज़ा और जुर्माना कड़ा किया गया तथा लुप्तप्राय प्रजातियों की सुरक्षा के नए प्रावधान जोड़े गए।
- 2002 संशोधन: नए संरक्षित क्षेत्र, सामुदायिक रिज़र्व और संरक्षण रिज़र्व की अवधारणा शुरू की गई।
- 2006 संशोधन: मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने और बाघों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) बनाया गया। साथ ही बाघ और अन्य लुप्तप्राय प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो की स्थापना का प्रावधान हुआ।
- 2022 संशोधन: इस संशोधन के तहत ‘धार्मिक या अन्य उद्देश्य’ के लिए हाथियों के उपयोग की अनुमति दी गई है। CITES के नियमों को लागू करने और संरक्षित प्रजातियों की संख्या बढ़ाने के लिए संशोधन किया गया। अनुसूचियों की संख्या घटाकर चार की गई:
- अनुसूची I: सबसे ज्यादा सुरक्षा वाली प्रजातियाँ
- अनुसूची II: सामान्य स्तर की सुरक्षा वाली प्रजातियाँ
- अनुसूची III: संरक्षित पौधे
- अनुसूची IV: CITES के तहत सूचीबद्ध प्रजातियाँ
निष्कर्ष:
उल्लू केवल अंधविश्वास का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रकृति के संतुलन का एक अहम हिस्सा है। दिवाली पर बढ़ता शिकार और तस्करी इनकी प्रजातियों के लिए बड़ा खतरा है। इसलिए जरूरी है कि हम अंधविश्वासों से दूर रहकर उल्लुओं और अन्य वन्यजीवों की रक्षा करें, यही पर्यावरण और मानवता दोनों के हित में है।