प्रशांत किशोर की हार: नई पार्टियों के लिए बड़ा सबक

प्रशांत किशोर-एक ऐसा नाम जिसने एक दशक से ज़्यादा समय तक भारतीय राजनीति के पर्दे के पीछे जादू बिखेरा। यह वही रणनीतिकार रहे जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर नीतीश कुमार और ममता बनर्जी जैसे दिग्गज नेताओं की जीत का रास्ता तैयार किया। लेकिन जब 48 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार खुद चुनावी मैदान में उतरने का फैसला लिया, तो यह जादू अचानक फीका पड़ गया।

 

किशोर ने बिहार में जन सुराज नामक अपनी राजनीतिक पहल को एक आधुनिक “पॉलिटिकल स्टार्ट-अप” की तरह लॉन्च किया। उन्होंने दो साल तक राज्य के गांव-गांव की पदयात्रा की, एक मजबूत टीम बनाई, और लगभग सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। मीडिया की चर्चा बड़ी थी, उम्मीदें भी बड़ी थीं-लेकिन परिणाम बेहद निराशाजनक रहे। जन सुराज एक भी सीट नहीं जीत सका, जबकि मोदी और नीतीश के नेतृत्व वाला NDA भारी बहुमत से सत्ता में लौट आया।

 

उनकी नई पार्टी जनसुराज चुनाव में लगभग शून्य पर सिमट गई। तीन वर्षों तक पूरे बिहार में पदयात्रा और लगातार प्रचार करने के बावजूद पीके के 98% उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।

 

इस करारी हार ने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा कर दिया-क्या भारत में एक नए राजनीतिक दल के लिए जगह है? या क्या भारत की राजनीति केवल उन्हीं दलों को आगे बढ़ने देती है जिनकी जड़ें पहले से समाज में गहरी हैं?

Prashant Kishor defeat

भारत में नए राजनीतिक दल क्यों नहीं टिक पाते?

आधुनिक भारतीय राजनीति में बहुत कम नए दल सफल हो पाए हैं। 1983 में आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी (TDP) का उदय हो सकता है, या पश्चिम बंगाल का तृणमूल कांग्रेस और ओडिशा का बीजू जनता दल-लेकिन ये सभी बड़े दलों से अलग होकर बने थे, जिनकी समाज में पहले से पकड़ मौजूद थी।

AAP की तरह असाधारण उदाहरण भी हैं, लेकिन वह भी एक विशाल जन-आंदोलन (अन्ना आंदोलन) से निकली थी।

 

जन सुराज के पास न कोई जनांदोलन था, न कोई संकट-जनित उर्जा, जो किसी नए दल को गति देती है। 2025 का बिहार, तमाम चुनौतियों के बावजूद, व्यापक असंतोष की स्थिति में नहीं था।

राजनीतिक विश्लेषक राहुल वर्मा कहते हैं: बिहार में कोई एंटी-इंकम्बेंसी नहीं थी। लोग अपनी पारंपरिक सामाजिक-राजनीतिक निष्ठाओं से नहीं हिले। ऐसे माहौल में जन सुराज एक विश्वसनीय विकल्प नहीं बन पाया।”

 

जन सुराज: एक आंदोलन नहीं, बल्कि एक ‘डिज़ाइन किया हुआ स्टार्ट-अप’

विशेषज्ञों के मुताबिक, AGP, TDP और AAP जैसे सफल नए दल सामाजिक भावनाओं, आंदोलनों और जन-ऊर्जा से बने थे। उनकी बुनियाद जनता के गहरे अनुभवों से निकली थी।

इसके मुकाबले, जैसा दिल्ली स्थित Indian School of Democracy के सौरभ राज कहते हैं:
जन सुराज एक वैचारिक और रणनीतिक परियोजना की तरह बना था-एक डिज़ाइन किया हुआ पॉलिटिकल स्टार्ट-अप, न कि जनता के असंतोष से पैदा हुआ आंदोलन।”

किशोर ने मुद्दों-जैसे कि रोजगार, शिक्षा, मजबूरन होने वाला पलायन-पर खूब बात की। युवा जनसंख्या को जोड़ने के लिए उन्होंने आधुनिक प्रचार, डिजिटल रणनीति और मीम्स तक का इस्तेमाल किया। लेकिन यह सब उस “भावनात्मक ऊर्जा” में बदल नहीं पाया, जो किसी नए दल को आगे बढ़ाती है।

उनके चुनाव न लड़ने के फैसले ने जनता में यह संदेह भी पैदा किया कि क्या वे वाकई सत्ता का विकल्प पेश कर रहे हैं, या एक प्रयोग चला रहे हैं।

 

प्रशांत किशोर ने खुद बताए कारण-क्यों असफल होते हैं भारत के ‘राजनीतिक स्टार्ट-अप’?

नीचे दिए गए बिंदु, जोकि किशोर के विचारों का सार हैं, जन सुराज की हार को भी स्पष्ट रूप से समझाते हैं:

  1. राजनीति में ब्रांडिंग नहीं, जड़ें चाहिए: राजनीति कोई प्रोडक्ट लॉन्च नहीं है। एक वेबसाइट, सोशल मीडिया फॉलोइंग या चमकीले पोस्टरों से वोट नहीं मिलते। गांवों में वर्षों तक संगठन बनाने की क्षमता ही जीत दिलाती है।
  2. भारतीय वोटर व्यक्ति पर भरोसा करता है, सिर्फ विचारों पर नहीं लोग पूछते हैं:
  • नेता कौन है?
  • क्या हमारे इलाके के लिए काम किया है?
  • संकट में साथ खड़ा रहेगा या नहीं?

स्टार्ट-अप्स यह भरोसा जल्दी नहीं बना पाते।

  1. सोशल मीडिया से वोट नहीं मिलते-संगठन चाहिए: एक राजनीतिक दल चलाने के लिए चाहिए:
  • जिला और बूथ स्तर की टीमें
  • कार्यालय
  • फील्ड सर्वे
  • लाखों वॉलंटियर्स
  • निरंतर समन्वय

ज्यादातर नए दल यह ढांचा खड़ा नहीं कर पाते।

  1. स्थापित दलों से मुकाबला आसान नहीं: राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के पास दशकों का अनुभव और विशाल नेटवर्क होता है। नए दल अक्सर जल्दी बड़ा मुक़ाबला करने की कोशिश में हार जाते हैं।
  2. नेतृत्व की अस्पष्टता-सबसे बड़ी समस्या: जब एक दल में कई चेहरे हों और कोई स्पष्ट नेता न हो, तो जनता उसे गंभीरता से नहीं लेती।
  3. जल्दी सफलता की चाह: एक वायरल वीडियो या एक बड़ी रैली, राजनीति में सफलता की गारंटी नहीं देती। यह पांच, दस, पंद्रह वर्षों की मेहनत से बनती है।
  4. स्थानीय मुद्दों की अधूरी समझ: भारत में राजनीति हर कुछ किलोमीटर पर बदल जाती है। एक ही संदेश पूरे राज्य में चलाना अक्सर उल्टा पड़ता है।
  5. लंबी प्रतिबद्धता की कमी: हार मिलने पर कई नए दल रस्सा कशी छोड़ देते हैं। राजनीति धैर्य, त्याग और लंबे समय की प्रतिबद्धता मांगती है।

 

जन सुराज की हार क्या बताती है?

प्रशांत किशोर भीड़ खींचते रहे, मीडिया में छाए रहे, भाषणों से प्रभावित करते रहे-लेकिन वोट नहीं जीत पाए। वोटरों ने अंत में उस 74 वर्षीय नेता-नीतीश कुमार-को चुना, जिनके बारे में किशोर ने भविष्यवाणी की थी कि वे वापसी नहीं कर पाएंगे।

यह परिणाम भारतीय राजनीति की एक कड़वी लेकिन महत्वपूर्ण सच्चाई दिखाता है:
ध्यान (attention) संगठन नहीं होता, और प्रचार (visibility) जनता के भरोसे की जगह नहीं ले सकता।

 

निष्कर्ष:

प्रशांत किशोर की चुनावी हार केवल एक पार्टी की नाकामी नहीं है-यह भारत की राजनीतिक संरचना का गहरा सबक है। भारत में राजनीति स्टार्ट-अप मॉडल से नहीं चलती। यह जमीनी मजबूती, सामाजिक जुड़ाव, निरंतर संगठन, भावनात्मक विश्वास और दशकों की मेहनत से चलती है।

नई राजनीतिक ताकत तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक वह आंदोलन की तरह न उभरे-धीरे, स्थिर और गहरी सामाजिक जड़ों के साथ।