रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) ने स्वदेशी रक्षा तकनीक में एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। चंडीगढ़ स्थित TBRL की रेल ट्रैक रॉकेट स्लेड (RTRS) सुविधा में DRDO ने लड़ाकू विमान के एस्केप सिस्टम का उच्च गति रॉकेट-स्लेज परीक्षण सफलतापूर्वक किया।
इस परीक्षण में 800 किमी/घंटा की नियंत्रित गति हासिल की गई और कैनोपी कटने से लेकर पायलट की सुरक्षित बाहर निकलने की पूरी प्रक्रिया को सफल पाया गया। यह संयुक्त प्रयास ADA और HAL की मदद से पूरा हुआ, जो भारतीय लड़ाकू विमानों की सुरक्षा और विश्वसनीयता को और मजबूत बनाता है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दी बधाई:
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस सफल परीक्षण पर DRDO, भारतीय वायु सेना, ADA, HAL और सभी उद्योग साझेदारों को बधाई दी। उन्होंने कहा कि यह उपलब्धि भारत की स्वदेशी रक्षा क्षमता को मजबूत करने वाला एक बड़ा कदम है और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर भी है।
Terminal Ballistics Research Laboratory (TBRL) क्या है ?
TBRL, DRDO की एक महत्वपूर्ण लैब है, जहाँ हथियारों, मिसाइलों और सुरक्षा प्रणालियों से जुड़े उन्नत परीक्षण किए जाते हैं। DRDO ने 2014 में यहां चार किलोमीटर लंबा रेल ट्रैक रॉकेट स्लेड बनाया था, जो सुपरसोनिक यानी ध्वनि की गति से भी तेज परीक्षण करने में सक्षम है। दुनिया में ऐसी सुविधाएँ बहुत कम हैं, इसलिए यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है।
यह केंद्र इसरो के मानव मिशनों के पेलोड, मिसाइलों और विमानों के नेविगेशन सिस्टम, प्रॉक्सिमिटी फ्यूज़, आयुध फ्यूज़, पैराशूट सिस्टम और विमान के अरेस्टर सिस्टम जैसे कई महत्वपूर्ण उपकरणों का असली परिस्थितियों जैसा परीक्षण करने की सुविधा देता है। इसरो ने गगनयान मिशन के लिए इस्तेमाल होने वाले पायलट पैराशूट और कैप्सूल के APEX कवर को अलग करने वाले पैराशूट का परीक्षण भी यहीं पर किया है। कुल मिलाकर, TBRL भारत की रक्षा और अंतरिक्ष प्रणालियों को सुरक्षित और विश्वसनीय बनाने में अहम भूमिका निभाता है।
परीक्षण किस प्रकार किया गया ?
इस परीक्षण को वास्तविक उड़ान जैसी स्थिति बनाने के लिए LCA (Light Combat Aircraft) विमान के अग्रभाग जैसी संरचना को दोहरी स्लेज प्रणाली पर लगाया गया और इसे कई ठोस ईंधन रॉकेट मोटरों के चरणबद्ध प्रज्वलन से नियंत्रित उच्च गति तक पहुँचाया गया। कॉकपिट में मानव जैसी एंथ्रोपोमॉर्फिक डमी बैठाई गई, जिसमें लगे सेंसरों ने उस पर पड़ने वाले बल, झटकों और त्वरण जैसे सभी महत्वपूर्ण आंकड़े रिकॉर्ड किए।
पूरे इजेक्शन क्रम को onboard और जमीन पर लगे हाई-स्पीड कैमरों ने कैप्चर किया, जिससे हर चरण का विस्तार से विश्लेषण संभव हो सका। परीक्षण की प्रमाणिकता सुनिश्चित करने के लिए भारतीय वायु सेना और एयरोस्पेस मेडिसिन संस्थान के अधिकारी भी मौजूद रहे।
परीक्षण के मायने:
रक्षा मंत्रालय के अनुसार यह परीक्षण बहुत अहम है, क्योंकि इससे भारत उन चुनिंदा देशों की सूची में शामिल हो गया है, जिनके पास अपने देश में ही उन्नत एस्केप सिस्टम (इजेक्शन सीट) का वास्तविक परिस्थितियों जैसा परीक्षण करने की क्षमता है। स्थैतिक यानी एक जगह खड़े होकर किए जाने वाले परीक्षण कई चीजें नहीं दिखा पाते। इसके मुकाबले गतिशील इजेक्शन परीक्षण तेज गति और हवा के दबाव जैसी असल उड़ान वाली स्थितियों को दोहराते हैं।
इससे यह समझा जा सकता है कि इजेक्शन सीट तेज गति में कितनी ठीक तरह से काम करती है, कैनोपी (कॉकपिट का कवर) सही समय पर और ठीक दिशा में अलग होती है या नहीं, और पायलट की सुरक्षा प्रक्रिया कितनी प्रभावी है। यही वजह है कि यह परीक्षण भारतीय लड़ाकू विमानों की सुरक्षा को और मजबूत बनाने की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है।
इजेक्शन सीट क्या है?
इजेक्शन सीट लड़ाकू विमानों में लगी एक खास सीट होती है, जिसका मुख्य उद्देश्य पायलट की जान बचाना है। अगर उड़ान के दौरान कोई गंभीर खतरा हो जाए जैसे; दुश्मन की मिसाइल से हमला, तकनीकी खराबी या विमान का नियंत्रण खो जाना, तो पायलट इस सीट की मदद से कुछ ही सेकंड में विमान से बाहर निकल सकता है।
जब पायलट इजेक्शन सीट का हैंडल खींचता है (जो आमतौर पर उसके पैरों के बीच या सीट के दोनों ओर होता है), तो एक इलेक्ट्रिक सिग्नल सिस्टम को सक्रिय कर देता है। इसके बाद:
- सबसे पहले कॉकपिट की कैनोपी (काँच का ढक्कन) खुल जाती है या टूटकर अलग हो जाती है।
- फिर थ्रस्टर्स या छोटे रॉकेट पायलट को तेजी से ऊपर हवा में उछाल देते हैं।
- सीट में ऑक्सीजन सप्लाई और पैराशूट भी लगा होता है, जिससे पायलट सुरक्षित रूप से नीचे उतर सके।
कैनोपी सेवरेंस सिस्टम:
कैनोपी सेवरेंस सिस्टम लड़ाकू विमान में लगा एक महत्वपूर्ण सुरक्षा तंत्र है, जिसका उपयोग तब किया जाता है जब उड़ान के दौरान कोई आपात स्थिति आ जाए और पायलट को तुरंत बाहर निकलना पड़े।
इस सिस्टम का काम कॉकपिट के ऊपर लगे कैनोपी (काँच या फाइबर का ढक्कन) को पहले से तय जगहों पर तेजी और सुरक्षित तरीके से काटकर या अलग करके पायलट के लिए रास्ता बनाना है। इससे पायलट को इजेक्शन सीट के जरिए बिना रुकावट के तुरंत विमान से बाहर आने में मदद मिलती है।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) के बारे में:
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) की स्थापना 1958 में सेना के तकनीकी विकास प्रतिष्ठान, तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय और रक्षा विज्ञान संगठन के विलय से की गई थी। इसका नेतृत्व रक्षा विभाग (R&D) के सचिव और DRDO के महानिदेशक करते हैं, जिन्हें विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों के मुख्य नियंत्रक वैज्ञानिक सहयोग देते हैं।
DRDO के 7 प्रमुख तकनीकी क्लस्टर हैं और पूरे भारत में फैली 53 विशेष प्रयोगशालाएँ रक्षा तकनीक, मिसाइल, विमानन, इलेक्ट्रॉनिक्स, जीवन विज्ञान और नौसेना प्रणालियों पर काम करती हैं। यह संगठन सशस्त्र बलों, उद्योग जगत और शिक्षा संस्थानों के साथ मिलकर देश की रक्षा क्षमता को मजबूत बनाता है।
निष्कर्ष:
यह सफल परीक्षण भारत की स्वदेशी रक्षा तकनीक के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इससे एस्केप सिस्टम की विश्वसनीयता और पायलट सुरक्षा के सभी चरणों की प्रभावशीलता स्पष्ट रूप से साबित हुई। ADA और HAL के सहयोग से हासिल यह सफलता बताती है कि भारत उन्नत लड़ाकू विमान तकनीक में तेज़ी से आत्मनिर्भर बन रहा है और उसकी विमानन सुरक्षा क्षमता और मजबूत हो रही है।
