4 दिसंबर 2025 को भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के सामने अपने इतिहास के सबसे निचले बिंदु तक पहुंच गया। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, आज रुपये में 28 पैसे की भारी गिरावट दर्ज की गई और यह 90.43 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर आ गया। मंगलवार को यह 90.15 रुपये के भाव पर कारोबार समाप्त हुआ था।
चालू वर्ष में भारतीय करेंसी की स्थिति बेहद चिंताजनक रही है। साल की शुरुआत में 1 जनवरी को जहां रुपया 85.70 के स्तर पर था, वहीं अब यह 90.43 रुपये के लेवल तक पहुंच चुका है। इस दौरान रुपये की वैल्यू में 5.5 प्रतिशत की कमी आई है।
डॉलर के मुकाबले रुपए का सफर एक डॉलर की रुपए में कीमत
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वर्ष | 1 डॉलर = रुपए |
1947 | ₹4 |
1983 | ₹10 |
1991 | ₹30 |
1993 | ₹20 |
1998 | ₹40 |
2012 | ₹50 |
2014 | ₹60 |
2018 | ₹70 |
2022 | ₹80 |
2025 | ₹90–100 (अंदाजन/ट्रेंड आधारित) |
विदेशी पूंजी की निरंतर निकासी का असर
भारतीय मुद्रा पर दबाव का प्रमुख कारण विदेशी फंडों की लगातार निकासी है। जुलाई 2025 से लेकर अब तक फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर्स ने भारतीय बाजारों से 1.03 लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि निकाल ली है। यह बिक्री डॉलर में परिवर्तित होती है, जिससे अमेरिकी मुद्रा की मांग में इजाफा हुआ है और रुपया कमजोर होता गया है।
आयात पर बढ़ता बोझ
रुपये के मूल्य में गिरावट का सीधा प्रभाव देश के आयात बिल पर पड़ता है। जब घरेलू मुद्रा कमजोर होती है तो विदेश से सामान मंगवाना महंगा हो जाता है। इसके साथ ही विदेश में शिक्षा प्राप्त करना और विदेश यात्रा भी खर्चीला हो गया है।
उदाहरण के तौर पर, जब डॉलर के मुकाबले रुपया 50 रुपये पर था, तब अमेरिका में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों को एक डॉलर के लिए केवल 50 रुपये देने पड़ते थे। वर्तमान परिस्थिति में उन्हें एक डॉलर के बदले 90.43 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इससे शुल्क, आवास, भोजन और अन्य खर्चे सभी महंगे हो गए हैं।
रुपये में गिरावट के तीन बड़े कारण
- पहला – अमेरिकी टैरिफ नीति: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारतीय आयात पर 50 फीसदी शुल्क लगाए जाने से स्थिति और जटिल हो गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह भारत की जीडीपी ग्रोथ को 60 से 80 बेसिस पॉइंट्स तक कम कर सकता है और राजकोषीय घाटा बढ़ा सकता है। इससे भारतीय निर्यात घट सकता है और विदेशी मुद्रा की आपूर्ति प्रभावित होगी।
- दूसरा – एफआईआई की बिक्री: व्यापार शुल्कों को लेकर अनिश्चितता के चलते विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारी मात्रा में अपनी होल्डिंग्स बेची हैं। यह बिक्री डॉलर में होती है, जिससे अमेरिकी करेंसी की डिमांड बढ़ी है और रुपया दबाव में आया है।
- तीसरा – डॉलर की बढ़ती मांग: तेल और सोने की कंपनियां हेजिंग उद्देश्यों के लिए डॉलर की खरीदारी कर रही हैं। इसके अतिरिक्त, टैरिफ की अनिश्चितता को देखते हुए अन्य आयातक भी डॉलर का स्टॉक बना रहे हैं। इससे रुपये पर निरंतर दबाव बना हुआ है।
आरबीआई का सीमित हस्तक्षेप
रुपये के 90 के पार जाने की बड़ी वजह भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर स्पष्टता का अभाव है। समय सीमा बार-बार आगे बढ़ने से पिछले कुछ सप्ताहों में रुपये की तेज बिकवाली देखी गई है।
धातु और स्वर्ण की रिकॉर्ड ऊंची कीमतों ने आयात बिल को बढ़ा दिया है। अमेरिका के भारी शुल्क से भारतीय निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप इस बार काफी सीमित रहा है, जिससे गिरावट में तेजी आई।
शुक्रवार को आरबीआई की मौद्रिक नीति आने वाली है। बाजार में उम्मीद है कि केंद्रीय बैंक मुद्रा को स्थिर करने के लिए कुछ उपाय करेगा। तकनीकी दृष्टि से रुपया अत्यधिक ओवरसोल्ड हो चुका है।
मुद्रा मूल्य निर्धारण का तंत्र
डॉलर की तुलना में किसी भी मुद्रा की वैल्यू में कमी को करेंसी डेप्रिसिएशन या मुद्रा का कमजोर होना कहते हैं। हर राष्ट्र के पास विदेशी मुद्रा भंडार होता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय लेनदेन संपन्न होते हैं। विदेशी भंडार में उतार-चढ़ाव का सीधा असर करेंसी की कीमत पर पड़ता है।
यदि भारत के विदेशी भंडार में डॉलर की मात्रा अमेरिका के रुपये के भंडार के बराबर हो, तो रुपये की कीमत स्थिर रहती है। हमारे पास डॉलर कम हो तो रुपया कमजोर होता है, ज्यादा हो तो मजबूत होता है।
सकारात्मक और नकारात्मक पहलू
लाभ की स्थितियां: निर्यातकों को अधिक मुनाफा मिलता है क्योंकि उन्हें विदेशी मुद्रा से ज्यादा रुपये मिलते हैं। पर्यटकों के लिए भारत सस्ता गंतव्य बनता है। चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। विदेश से धन भेजने पर अधिक रुपये प्राप्त होते हैं।
नुकसान: महंगाई में वृद्धि होती है। तेल और सोना महंगे हो जाते हैं। विदेश में शिक्षा और यात्रा खर्चीली हो जाती है। विदेशी निवेश में कमी आती है।
वैश्विक स्तर पर डॉलर का प्रभुत्व
अमेरिकी डॉलर विश्व की सबसे स्थिर और प्रभावशाली मुद्रा बनी हुई है। केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 57 से 60 प्रतिशत हिस्सा डॉलर में है। वैश्विक ऋण का 39 फीसदी डॉलर में है और दुनिया के लगभग 50 से 60 प्रतिशत व्यापार का निपटान डॉलर में होता है। यह प्रभुत्व डॉलर को अन्य मुद्राओं के मुकाबले मजबूत स्थिति में रखता है।
आगे की संभावनाएं
वर्तमान परिस्थिति में रुपये की स्थिति चिंताजनक है। आगामी आरबीआई नीति से बाजार को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है। हालांकि, जब तक भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता में स्पष्टता नहीं आती और विदेशी निवेश में सुधार नहीं होता, रुपये पर दबाव बना रह सकता है।
