कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स रोकथाम बिल 2025

कर्नाटक सरकार ने हाल ही में विधानसभा में कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (रोकथाम) बिल, 2025 प्रस्तुत किया। यह प्रस्ताव 4 दिसंबर को मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद सदन में लाया गया। जिसका मुख्य लक्ष्य ऐसे बयान और कृत्यों पर रोक लगाना है जो समाज में तनाव बढ़ाते हैं। इसमें कठोर कारावास और भारी जुर्माने संबंधी प्रावधान प्रस्तावित है।

Karnataka Prevention of Hate Speech and Hate Crimes Bill 2025

कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (रोकथाम) बिल, 2025

 

  • घृणा भाषण: विधेयक में घृणा भाषण को स्पष्ट भाषा में समझाया गया है। इसमें किसी भी प्रकार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति—चाहे वह मौखिक हो या लिखित, संकेत, चित्र, इलेक्ट्रॉनिक संचार, दृश्य-सामग्री या प्रिंट—शामिल है, यदि उसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, समुदाय, वर्ग या समूह के प्रति दुर्भावना, शत्रुता, अविश्वास, आक्रोश या भेदभाव को बढ़ावा देना हो। विधेयक इस बात पर जोर देता है कि अभिव्यक्ति का माध्यम कोई भी हो, लेकिन अगर उसका प्रभाव समाज में तनाव या नुकसान का कारण बने, तो वह घृणा भाषण के दायरे में आएगा।
  • घृणा अपराध: विधेयक “घृणा अपराध” को उस स्थिति के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें घृणा भाषण का प्रचार या संप्रेषण ऐसे तरीके से किया जाए कि किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ शत्रुता, अविश्वास या पूर्वाग्रह पैदा हो। इसमें भाषण बनाना, प्रकाशित करना, बढ़ावा देना, प्रसारित करना, उकसाना या इस तरह का प्रयास भी शामिल है। 
  • संरक्षित आधार: विधेयक उन सभी आधारों को सूचीबद्ध करता है जिनके आधार पर किसी समुदाय के खिलाफ भेदभाव पैदा करना गंभीर अपराध माना जाएगा। इनमें धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय, लिंग, सेक्स, यौन उन्मुखता, जन्मस्थान, निवास, भाषा, जनजाति और दिव्यांगता शामिल हैं। इन आधारों पर किसी समूह को निशाना बनाकर उत्पन्न किया गया तनाव या घृणा सीधे घृणा भाषण की श्रेणी में आएगा।
  • दंड और सजा: विधेयक में अपराध की तीव्रता और पुनरावृत्ति के आधार पर दंड तय किया गया है। पहला अपराध करने पर एक से सात वर्ष तक का कारावास और अधिकतम ₹50,000 तक का जुर्माना। पुनरावृत्ति होने पर कम से कम दो वर्ष की सजा, जो बढ़कर दस वर्ष तक जा सकती है, तथा अधिकतम ₹1,00,000 का जुर्माना। सभी अपराध संज्ञेय (Cognisable) और अपराध-मुक्ति-योग्य नहीं (Non-bailable) हैं। 
  • जमानत संबंधी प्रावधान: विधेयक पुलिस को बिना किसी न्यायालय आदेश के FIR दर्ज करने का अधिकार देता है। चूंकि अपराध गैर-जमानती है, इसलिए आरोपी को स्वतः जमानत का अधिकार नहीं मिलता। कोर्ट परिस्थिति, सबूत और खतरे के आधार पर जमानत पर निर्णय लेता है। यह प्रावधान घृणा भाषण के मामलों में कठोरता और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है।
  • निवारक कार्रवाई के अधिकार: विधेयक प्रशासन को यह शक्ति देता है कि विश्वसनीय सूचना मिलने पर, जब आशंका हो कि घृणा भाषण होने वाला है, तो पहले ही हस्तक्षेप किया जा सके। इन अधिकारयुक्त अधिकारियों में शामिल हैं— कार्यकारी मजिस्ट्रेट, विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट, उप पुलिस अधीक्षक (DSP) या उससे ऊपर के अधिकारी। ये अधिकारी समय रहते कदम उठाकर सामाजिक शांति बनाए रखने का प्रयास कर सकते हैं।
  • संगठनों की जिम्मेदारी: विधेयक में एक और महत्वपूर्ण पहलू प्रस्तुत किया गया है—यदि कोई घृणा भाषण किसी संस्था, संगठन या समूह के माध्यम से फैलाया गया है, तो उस संगठन का संचालन देखने वाले सभी पदाधिकारी कानूनन जिम्मेदार माने जाएंगे। उन्हें यह साबित करना होगा कि उन्हें घटना की जानकारी नहीं थी या वह घटना उनके नियंत्रण में नहीं थी। आवश्यक होने पर पूरा संगठन भी आरोपी की तरह दंडनीय होगा। 
  • छूट: कानून में कुछ सामग्री घृणा भाषण की श्रेणी से बाहर रखा गया है। निम्न स्थितियाँ विधेयक से बाहर रखी गई हैं— वैज्ञानिक अनुसंधान, साहित्यिक कार्य, कला, संस्कृति और अध्ययन से जुड़े लेखन, धार्मिक या सांस्कृतिक परंपरा से संबंधित वास्तविक और उद्देश्यपूर्ण सामग्री, ऐतिहासिक या शैक्षणिक संदर्भ में उपयोग की जाने वाली रचनाएँ।

 

इस विधेयक का महत्व:

  • कानून-व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण: भारत में हाल के वर्षों में घृणा भाषण की घटनाओं में तेज वृद्धि ने राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र के सामने गंभीर चुनौती खड़ी की है। 2024 में दर्ज मामलों का बढ़ा हुआ ग्राफ यह संकेत देता है कि समाज में भड़काऊ भाषण कितनी तेजी से अस्थिरता पैदा कर सकता है। ऐसे परिदृश्य में यह विधेयक पुलिस को बिना देर किए कार्रवाई करने का कानूनी आधार देता है। 
  • सामाजिक सद्भाव की रक्षा: भारत के कई हिस्सों में देखा गया है कि भड़काऊ भाषण अक्सर बड़े सामुदायिक तनाव और हिंसा का प्रारंभिक कारण बनता है। अतीत में कई घटनाएँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उकसाने वाले शब्द थोड़े समय में व्यापक नुकसान में बदल सकते हैं। इस विधेयक का उद्देश्य ऐसे ही जोखिमों को समय रहते रोकना है। इससे विविध समुदायों के बीच विश्वास बढ़ाने में मदद मिलेगी।
  • पीड़ितों के अधिकार: घृणा भाषण और घृणा अपराध केवल क्षणिक तनाव नहीं पैदा करते, बल्कि कई बार समुदायों में दीर्घकालिक भय का माहौल बना देते हैं। पीड़ितों पर इसका मनोवैज्ञानिक और आर्थिक प्रभाव भी गंभीर होता है। इस विधेयक की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि अदालतों को पीड़ितों को मुआवजा देने का अधिकार दिया गया है। न्याय प्रक्रिया में यह नया आयाम लोगों को आगे आकर शिकायत दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित करेगा और संस्थागत भरोसा मजबूत करेगा।
  • राज्य-स्तरीय आधुनिकीकरण: केंद्र और राज्य स्तर पर लागू विभिन्न कानूनों के बावजूद कई बार घृणा भाषण से जुड़े अपराधों की पहचान और कार्रवाई में लंबा समय लगता था। कर्नाटक का यह विधेयक मौजूदा कानूनी ढांचे की कमियों को दूर करते हुए एक अधिक समकालीन, स्पष्ट और कार्यक्षम व्यवस्था प्रस्तुत करता है। इससे प्रशासनिक एजेंसियों को एक ऐसा कानून मिलेगा, जिसमें परिभाषाएँ सटीक हैं, प्रक्रियाएँ स्पष्ट हैं।

 

भारत में घृणा भाषण विनियमन का संवैधानिक और विधिक आधार

    • अनुच्छेद 19(1)(a): भारतीय संविधान नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार देता है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था की मुख्य धुरी मानी जाती है। यह अधिकार व्यक्ति को सरकार की आलोचना करने, सांस्कृतिक विविधता व्यक्त करने और सामाजिक मुद्दों पर खुलकर बोलने की अनुमति देता है। हालांकि संविधान मे यह स्पष्ट है कि स्वतंत्रता का उपयोग तब खतरा बन सकता है जब शब्दों का प्रयोग दुर्भावना, हिंसा या सामुदायिक तनाव बढ़ाने के लिए किया जाए। 
    • अनुच्छेद 19(2): अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए जाने वाले प्रतिबंधों का आधार अनुच्छेद 19(2) है। इस प्रावधान में राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा, राष्ट्रीय अखंडता, विदेशी राज्यों से मैत्री संबंध जैसे मुद्दों की रक्षा के लिए भाषण पर सीमाएँ निर्धारित कर सके। सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में कहा है कि प्रतिबंध तभी स्वीकार्य होंगे जब वे उचित, तार्किक और संभावित हानि के अनुपात में हों। 
    • दंड संहिता में दंडात्मक प्रावधान: भारत में घृणा भाषण पर नियंत्रण के लिए भारतीय दंड संहिता (IPC) के विभिन्न प्रावधान उपयोग किए जाते हैं। इनमें मुख्य रूप से धारा 153A, 153B, 295A, 505(1) और 505(2) शामिल हैं, जो सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने, राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने तथा अफवाहों से उत्पन्न अशांति को नियंत्रित करते हैं। इन प्रावधानों का निर्माण 1927 से 1972 के बीच हुआ, जिसका उद्देश्य विविध समाज में शांति और सामुदायिक संतुलन बनाए रखना था।
  • सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्णय:
    • प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ (2014): 2014 के इस मामले में न्यायालय ने पाया कि समाज में बढ़ते घृणा भाषण से समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। अदालत के अनुसार, मौजूदा कानून पर्याप्त हैं, परंतु इनके प्रभावी कार्यान्वयन की आवश्यकता है। न्यायालय ने सरकार और संस्थाओं को अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की सलाह दी।
    • श्रेया सिंघल निर्णय (2015): 2015 के इस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने चर्चा, समर्थन और उकसावे के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित किया। निर्णय में कहा गया कि केवल वही भाषण प्रतिबंध योग्य है जो प्रत्यक्ष रूप से हिंसा या नुकसान को भड़काता हो। अदालत ने आईटी कानून की धारा 66A को इसी कारण असंवैधानिक घोषित किया क्योंकि उसमें अस्पष्ट और अत्यधिक व्यापक शब्दावली का प्रयोग था।
  • विधि आयोग की रिपोर्ट: 2017 की विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट में कहा गया कि घृणा भाषण समाज की गरिमा को प्रभावित करता है, भेदभाव बढ़ाता है और समुदायों के बीच अस्थिरता पैदा करता है। आयोग ने IPC में नए प्रावधान जोड़ने का सुझाव दिया, जैसे धारा 153C और धारा 505A, ताकि संवेदनशील समूहों को विशेष सुरक्षा मिल सके और नफरत फैलाने वाले कृत्यों को स्पष्ट रूप से अपराध की श्रेणी में लाया जा सके।

 

भारत में घृणा भाषण विनियमन की चुनौतियाँ:

  • स्पष्ट कानूनी परिभाषा का अभाव: भारत में घृणा भाषण को नियंत्रित करने का सबसे बड़ा अवरोध इसकी स्पष्ट और स्वतंत्र कानूनी परिभाषा का न होना है। वर्तमान दंड प्रावधान, जैसे BNS की धाराएँ 153A और 295A, केवल वैमनस्य फैलाने वाले कृत्यों पर केंद्रित हैं, जबकि “घृणा भाषण” को एक विशिष्ट अपराध के रूप में परिभाषित नहीं करतीं। इस अस्पष्टता के कारण पुलिस और न्यायालय अक्सर अपने विवेक के आधार पर मामलों की व्याख्या करते हैं, जिससे कानून के उपयोग में असमानता पैदा होती है। 
  • डिजिटल युग में तेजी से प्रसार की चुनौती: सोशल मीडिया के व्यापक उपयोग ने घृणा भाषण को नियंत्रित करना और अधिक कठिन बना दिया है। एक ही पोस्ट या वीडियो कुछ ही सेकंड में लाखों लोगों तक पहुँच जाता है, जिससे नुकसान का पैमाना कई गुना बढ़ जाता है। इंटरनेट पर उपयोगकर्ता फर्जी प्रोफाइल, वीपीएन और गुमनाम खातों का प्रयोग करके अपनी पहचान छिपा सकते हैं, जिससे मूल दोषी तक पहुँचना जटिल हो जाता है। डिजिटल सामग्री की गति और प्रसार कानून प्रवर्तन एजेंसियों की क्षमता से कहीं अधिक है, जिसके परिणामस्वरूप कई मामलों में जांच अधूरी रह जाती है। 
  • राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ: भारत का सामाजिक ढाँचा बहु-धार्मिक और बहु-जातीय है, जहाँ राजनीतिक विमर्श अक्सर पहचान आधारित मुद्दों से प्रभावित होता है। कई बार राजनीतिक दल या नेता उत्तेजक बयान देकर अपने समर्थकों को संगठित करने की कोशिश करते हैं, जिससे घृणा भाषण पर कार्रवाई करना राजनीतिक जोखिम से जुड़ जाता है। इसके अलावा, कुछ मामलों में कानून का उपयोग राजनीतिक असहमति को दबाने या आलोचनात्मक आवाज़ों को नियंत्रित करने के लिए भी किया जाता है। ऐसे उदाहरण न सिर्फ कानून की विश्वसनीयता को कम करते हैं, बल्कि यह शंका भी उत्पन्न करते हैं।
  • न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी: सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर पुलिस को निर्देश दिया है कि वे घृणा भाषण के मामलों में बिना शिकायत के भी सुओ मोटो कार्रवाई करें। फिर भी, ज़मीनी स्तर पर इन निर्देशों का पालन अक्सर कमजोर रहता है। पुलिस तंत्र में विशेषज्ञ प्रशिक्षण की कमी के कारण जाँच में तकनीकी त्रुटियाँ हो जाती हैं, जिससे मामलों को अदालत में साबित करना कठिन हो जाता है। न्यायालयों में लंबित मामलों की भारी संख्या संबंधी विलंबित न्याय प्रणाली से पीड़ितों को उचित राहत मिलने में भी काफी समय लग जाता है, जिससे कानून का निवारक प्रभाव कमजोर पड़ता है।