देश के 272 प्रतिष्ठित नागरिकों-जिनमें 16 जज, 123 पूर्व IAS-IPS अधिकारी, 14 पूर्व राजदूत और 133 सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी शामिल हैं- उन्होंने एक खुला पत्र जारी कर विपक्ष के नेता राहुल गांधी और कांग्रेस पर संवैधानिक संस्थाओं, खासकर चुनाव आयोग, की विश्वसनीयता कमजोर करने का आरोप लगाया है।
“Assault on National Constitutional Authorities” शीर्षक वाले इस पत्र में कहा गया है कि विपक्षी नेता “जहर घोलने वाली बयानबाज़ी” और “बिना सबूत के आरोप” लगाकर संस्थाओं में जनविश्वास कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं।
खुला पत्र (Open Letter) क्या होता है? खुला पत्र वह पत्र होता है जो किसी एक व्यक्ति, संस्था या समूह को संबोधित किया जाता है, लेकिन उसे निजी तौर पर भेजने के बजाय सार्वजनिक रूप से जारी किया जाता है -जैसे समाचार पत्र, वेबसाइट, सोशल मीडिया या अन्य सार्वजनिक मंच पर।
खुले पत्र की विशेषताएँ · इसे लिखने वाला चाहता है कि पूरा समाज या जनता इस संदेश को पढ़े। · इसमें अक्सर किसी मुद्दे पर आपत्ति, चेतावनी, सुझाव, आलोचना या अपील होती है। · ऐसे पत्र का उद्देश्य सिर्फ संबोधित व्यक्ति से बात करना नहीं, बल्कि जनमत को प्रभावित करना होता है। · खुला पत्र आमतौर पर समूह की ओर से भी लिखा जा सकता है – जैसे बुद्धिजीवी, अधिकारी, कलाकार, वैज्ञानिक आदि। उदाहरण · किसी नेता को संबोधित खुले पत्र में नीति, व्यवहार या बयानबाज़ी पर सवाल उठाए जा सकते हैं। · समाज के लोगों या संस्थाओं को जागरूक करने के लिए भी खुले पत्र लिखे जाते हैं। |
‘बिना सबूत के आरोपों से चुनाव आयोग पर हमला’
पत्र में दावा किया गया है कि कुछ राजनीतिक नेता जनहित से जुड़े ठोस नीतिगत विकल्प देने की बजाय केवल नाटकीय और बिना प्रमाण वाले आरोपों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
पत्र में लिखा है: “सशस्त्र बलों की वीरता पर सवाल उठाने, न्यायपालिका की निष्पक्षता पर संदेह जताने, संसद और उसके पदाधिकारियों को निशाना बनाने के बाद अब चुनाव आयोग को भी षड्यंत्रपूर्वक बदनाम किया जा रहा है।”
राहुल गांधी पर निशाना-‘सबूत का एक भी हलफनामा नहीं’
पत्र में कहा गया कि राहुल गांधी लगातार वोट चोरी, “100% प्रूफ” और “एटम बम” जैसे आरोप लगा रहे हैं, पर अब तक न तो कोई आधिकारिक शिकायत दी और न ही शपथपत्र दायर किया।
साइन किए गए इस पत्र में कहा गया कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों द्वारा चुनाव आयोग को “BJP की B-टीम” बताने जैसे आरोप भी सबूतों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
पत्र में कहा गया:
“ECI ने अपनी पूरी प्रक्रिया सार्वजनिक की है, कोर्ट की देखरेख में सत्यापन कराया है, और नियमों के अनुसार सूची सुधार भी किए हैं। ऐसे में चुनाव आयोग पर हमले टिकते नहीं हैं।”
‘यह व्यवहार राजनीतिक हताशा की उपज’-साइन करने वालों का आरोप
पत्र में इन हमलों को “impotent rage” यानी राजनीतिक हताशा का गुस्सा बताया गया है। उनका कहना है:
“लगातार चुनावी हार से उपजा यह गुस्सा नेताओं को संस्थाओं पर हमला करने के लिए प्रेरित करता है। जनता से जुड़ाव खोने के बाद वे आत्ममंथन की बजाय संस्थाओं को दोष देते हैं।”
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त: शेषन और गोपालस्वामी का उदाहरण
पत्र में कहा गया कि देश जब चुनाव आयोग की बात करता है तो टी.एन. शेषन और एन. गोपालस्वामी जैसे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों को याद करता है, जिन्होंने निष्पक्ष और निडर होकर नियमों को लागू किया।
“उन्होंने कभी लोकप्रियता नहीं, केवल संवैधानिक कर्तव्य को महत्व दिया।”
चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए अपील
पत्र में अंत में कहा गया:
“हम चुनाव आयोग से आग्रह करते हैं कि वह पारदर्शिता और कठोरता के मार्ग पर चलता रहे-पूरा डेटा प्रकाशित करे और आवश्यक होने पर कानूनी रास्ता अपनाए।”
साथ ही राजनीतिक नेताओं से कहा गया:
“संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान करें, बिना सबूत आरोप लगाने की जगह नीतिगत बहस करें और लोकतांत्रिक फैसलों को गरिमा के साथ स्वीकारें।”
मतदाता सूची और अवैध मतदाताओं का मुद्दा
खुले पत्र में अवैध मतदाताओं, फर्जी वोटरों और गैर-नागरिकों की समस्या का उल्लेख भी किया गया है।
पत्र में लिखा गया कि भारत जैसे देश में यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा संवेदनशील मुद्दा है और दुनिया के कई लोकतांत्रिक देश अवैध प्रवासियों को मतदान अधिकार नहीं देते।
अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और यूरोपीय देशों के उदाहरण देते हुए कहा गया कि भारत को भी अपने चुनावी तंत्र की सुरक्षा के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए।
निष्कर्ष:
बुज़ुर्ग न्यायविदों, पूर्व नौकरशाहों और सैन्य अधिकारियों के इस समूह ने देशवासियों से अपील की है कि वे चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के साथ खड़े हों। उनके अनुसार, राजनीतिक दलों को बिना सबूत लगाए गए आरोपों और “थिएट्रिकल भाषणों” से बचते हुए जनता को ठोस वैकल्पिक नीतियाँ और व्यवहारिक सुधार योजनाएँ पेश करनी चाहिए।
समूह ने कहा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को कमजोर करना देश के लोकतांत्रिक ढांचे और राष्ट्रीय स्थिरता के लिए हानिकारक है।
