दीपावली को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया गया

हाल ही में दीपावली को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में आधिकारिक रूप से शामिल किया गया। यह सम्मान नई दिल्ली के लाल किले में आयोजित अंतर-सरकारी समिति के 20वें सत्र के दौरान प्रदान किया गया, जहाँ 194 सदस्य देशों के विशेषज्ञ और प्रतिनिधि मौजूद थे। इस निर्णय ने भारत की सांस्कृतिक परंपराओं को वैश्विक स्तर पर नई पहचान दी।

Diwali included in UNESCO Intangible Cultural Heritage List

अंतरसरकारी समिति के 20वें सत्र की मुख्य बातें:

  • अमूर्त सांस्कृतिक विरासत संरक्षण हेतु अंतरसरकारी समिति का 20वां सत्र नई दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में 8 से 13 दिसंबर 2025 तक आयोजित किया जाएगा। 
  • यह सत्र संस्कृति मंत्रालय और संगीत नाटक अकादमी के संयुक्त आयोजन से संचालित हो रहा है। 
  • कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य यूनेस्को के 2003 कन्वेंशन की भावना को आगे बढ़ाना है, जिसमें समुदाय-आधारित ज्ञान, स्थानीय परंपराओं की संरक्षा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांस्कृतिक हस्तांतरण पर जोर दिया गया है। 
  • इस बार समिति 79 देशों से प्राप्त 67 नामांकनों की समीक्षा कर रही है, जिनमें भारत की दीपावली और बांग्लादेश की तांगाइल साड़ी बुनाई इस वर्ष की सूची में दर्ज किए जा चुके हैं।

 

दीपावली : प्रकाश, परंपरा और भारतीय विरासत का अनंत उत्सव

  • दीपावली भारत की सांस्कृतिक स्मृति में वह पर्व है जिसने सदियों से अंधकार पर प्रकाश, अधर्म पर धर्म और अज्ञान पर ज्ञान की विजय को सामूहिक रूप से व्यक्त किया है। यह उत्सव आज केवल धार्मिक मान्यताओं तक सीमित नहीं, बल्कि हिंदू, जैन और सिख परंपराओं के ऐतिहासिक अनुभवों को भी एक सूत्र में पिरोता है।
  • भारतीय समाज में दीपावली की जड़ें दो हजार से अधिक वर्षों से जुड़ी हुई हैं। पद्म पुराण और स्कंद पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में उस काल का वर्णन मिलता है, जब लोग वर्षा ऋतु के बाद उजाले का स्वागत करते थे। कृषि-आधारित जीवन शैली में दीपावली मौसम परिवर्तन का संकेत थी और समुदाय इसे नये आरंभ के अवसर के रूप में मनाते थे।
  • रामायण की परंपरा ने इस पर्व को एक गहरा भावनात्मक स्वरूप दिया। लगभग 500 ईसा पूर्व घटित हुई इस कथा परंपरा में अयोध्या के नागरिकों का उत्साह दर्ज है, जब राम, सीता और लक्ष्मण चौदह वर्ष के वनवास के बाद लौटे। नगरवासियों ने तेल के छोटे दीप जलाकर उस क्षण को उजाले से भरा, और यह दृश्य समय के साथ धर्म की विजय का प्रतीक बन गया।
  • जैन दर्शन में भी दीपावली का अध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहरा है। जैन समुदाय इस दिन को भगवान महावीर के निर्वाण का स्मरण दिवस मानते है, जो परंपरागत रूप से 527 ईसा पूर्व माना जाता है। उस समय शिष्यों ने ज्ञान के प्रकाश का सम्मान करने के लिए दीप जलाए। आज भी जैन समाज दीपावली को तप, आत्मावलोकन और अहिंसा के संकल्प के रूप में मनाता है।
  • सिख इतिहास में दीपावली एक अलग आयाम है। सत्रहवीं सदी में, गुरु हरगोबिंद साहिब के ग्वालियर किले से मुक्त होने और अनेक बंदियों को साथ लाने की घटना ने इस दिन को स्वतंत्रता का संदेश दिया। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर को प्रकाशित कर समुदाय ने इस विजय को सम्मान दिया। यह स्मरण आज बंदी छोड़ दिवस के रूप में दीपावली परंपरा का हिस्सा बन चुका है।
  • कृषि क्षेत्र में दीपावली मौसम परिवर्तन और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रही है। नौवीं और दसवीं सदी के अभिलेख बताते हैं कि ग्रामीण समाज खरीफ फसल के बाद इस समय को सामाजिक मेल-मिलाप और नयी बुवाई की तैयारी का अवसर मानता था। इस तरह दीपावली केवल धार्मिक नहीं रही, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिरता और सामुदायिक सहयोग का आधार बनी।
  • समय के साथ दीपावली बहु-आयामी अनुष्ठानों वाला उत्सव बन गई। उत्तर भारत में लक्ष्मी पूजा और दीप प्रज्वलन सुख-समृद्धि का आह्वान करता है। दक्षिण भारत में नरक चतुर्दशी की परंपरा कृष्ण द्वारा नरकासुर के वध की कथा से जुड़ती है। पश्चिम भारत बलि प्रतिपदा पर राजा बलि की उदारता को स्मरण करता है, जबकि पूर्वी भारत में यह पर्व काली पूजा के रूप में मनाया जाता हैं।

 

यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत प्रणाली

  • परिचय: यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत उस जीवंत परंपरा को दर्शाती है जो पीढ़ियों के अनुभव, अभ्यास और कौशल से आज तक जीवंत है। यह विरासत लोगों की रोज़मर्रा की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी रहती है। इसी वजह से इसे समुदायों की “जीवित संपदा” कहा जाता है।
  • शुरुआत: इस अवधारणा को अंतरराष्ट्रीय मान्यता सन् 2003 में अपनाए गए यूनेस्को कन्वेंशन से मिली, जिसने पहली बार अमूर्त विरासत की परिभाषा और उसके संरक्षण के सिद्धांत तय किए। यह कन्वेंशन अप्रैल 2006 में लागू हुआ और इसके साथ सदस्य देशों की जिम्मेदारी तय हुई कि वे अपनी पारंपरिक पहचानों को सुरक्षित और प्रासंगिक बनाए रखें।
  • उद्देश्य: कन्वेंशन का प्रमुख उद्देश्य उन ज्ञान प्रणालियों और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को भविष्य के लिए सुरक्षित करना है, जिन्हें लोग बोलकर, सिखाकर और अभ्यास के माध्यम से आगे बढ़ाते हैं। इसमें समुदायों को मुख्य केंद्र माना गया है, क्योंकि विरासत का अस्तित्व उनके जीवंत अभ्यास पर ही निर्भर करता है। 
  • सूची: अंतरराष्ट्रीय मान्यता के लिए यूनेस्को तीन प्रकार की सूची संचालित करता है। प्रतिनिधि सूची उन परंपराओं को वैश्विक पहचान देती है जो सांस्कृतिक विविधता को समृद्ध करती हैं। तत्काल संरक्षण सूची उन परंपराओं के लिए है जो विलुप्ति के जोखिम में हैं और जिन्हें विशेष उपायों की जरूरत है। इसके अलावा सफल संरक्षण प्रथाओं का रजिस्टर उन नीतियों और परियोजनाओं को दर्ज करता है जिन्हें आदर्श मॉडल माना जाता है।
  • संचालन: इस ढांचे के संचालन की जिम्मेदारी कन्वेंशन की जनरल असेंबली और उसके द्वारा चुनी गई अंतरसरकारी समिति निभाती है। समिति नामांकन, मूल्यांकन और संरक्षण उपायों की निगरानी करती है और हर वर्ष अपनी बैठक में नए नामांकन के चयन पर निर्णय लेती है।
  • योग्यता: किसी विरासत तत्व को सूची में शामिल करने से पहले सदस्य देश को उस परंपरा से जुड़े समुदाय के साथ मिलकर एक विस्तृत नामांकन दस्तावेज तैयार करना होता है। इस दस्तावेज़ में यह सिद्ध करना आवश्यक है कि परंपरा वास्तव में समुदाय के भीतर पीढ़ियों से चली आ रही है और आगे भी जारी रह सकती है। इसमें संरक्षण योजनाओं का विवरण और समुदाय की सक्रिय भागीदारी का प्रामाणिक प्रमाण जरूरी होता है।

 

भारत की यूनेस्को मान्यता प्राप्त अमूर्त सांस्कृतिक विरासत

  • भारत ने अपनी सांस्कृतिक बहुलता और ऐतिहासिक निरंतरता को दुनिया के सामने मजबूती से स्थापित किया है। वर्तमान में देश के 16 सांस्कृतिक तत्व यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में दर्ज हैं। ये परंपराएँ उन समुदायों की स्मृति, अभ्यास और सामूहिक पहचान को जीवित रखने का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
  • कुटियाट्टम को 2008 में वैश्विक दर्जा मिला। यह प्राचीन संस्कृत रंगमंच शैली केरल के मंदिरों में सदियों से अभिव्यक्त होती रही है। इसमें कलाकार चेहरे की मुद्राओं, हाथ के संकेतों और गहरे अभिनय के माध्यम से शास्त्रीय कथाओं का विस्तार से प्रस्तुतीकरण करते हैं।
  • 2008 में ही वैदिक मंत्रोच्चार को भी मान्यता मिली। इसमें भारत के अलग-अलग हिस्सों में वैदिक परंपरा को मौखिक पद्धति से संजोया जाता रहा है। स्वर की निरंतरता, उच्चारण की शुद्धता और अनुशासित अध्ययन इस परंपरा को जीवंत बनाए रखते हैं।
  • रामलीला, जिसे उत्तर भारत में प्रमुख रूप से मंचित किया जाता है, 2008 में सूची में शामिल हुई। इसमें स्थानीय कलाकार शरद ऋतु के उत्सवी दिनों में रामायण के प्रसंगों को मंच पर रूपांतरित करते हैं। मंचन लोगों को धार्मिक कथा के साथ सामाजिक एकता का अनुभव कराता है।
  • रम्मान, 2009 में सूचीबद्ध, उत्तराखंड के सलूर डुंगरा गांव का अनूठा सामुदायिक उत्सव है। इसमें गांव के परिवार अलग-अलग भूमिकाओं के साथ संगीत, नृत्य और पौराणिक कथाओं का संयोजन तैयार करते हैं।
  • छाऊ नृत्य को 2010 में मान्यता मिली। यह पूर्वी भारत की एक विशिष्ट नाट्य-नृत्य शैली है, जिसमें मुखौटों, वीरता के भावों और पुराण कथाओं का विस्तार देखने को मिलता है।
  • कालबेलिया गीत और नृत्य, राजस्थान की घुमंतू परंपरा का हिस्सा, 2010 में सूची में दर्ज हुआ। इसमें नर्तकियों की लचकदार भंगिमाएँ और लोकगीत मरुस्थली जीवन की संवेदनाओं को सामने लाते हैं।
  • मुडियेट्टू, 2010 में सूचीबद्ध केरल की एक अनुष्ठानिक रंगमंच परंपरा है। इसमें मंदिर प्रांगण में देवी काली और दारिका के संघर्ष का चित्रण समुदाय की धार्मिक स्मृति को सुदृढ़ करता है।
  • 2012 में लद्दाख का बौद्ध स्तोत्र-पाठ सूची में जोड़ा गया। इसमें विभिन्न मठों के भिक्षु अपनी विशिष्ट लय, स्मरण पद्धति और आध्यात्मिक अभ्यास के माध्यम से इस परंपरा को संरक्षित रखते हैं।
  • संकीर्तन, 2013 में मान्यता प्राप्त, मणिपुर की वैष्णव परंपरा का प्रमुख अंग है। गायन, नृत्य और तालवाद्य के साथ यह परंपरा धार्मिक जीवन में निरंतरता बनाए रखती है।
  • थाथेरा समुदाय की पारंपरिक धातु शिल्पकला को 2014 में सूची में स्थान मिला। इसमें पंजाब में यह शिल्पकला तांबे और पीतल के बर्तनों को पारंपरिक ढंग से आकार देने के लिए जानी जाती है।
  • नवरोज़, 2016 में शामिल, भारत में पारसी और अन्य समुदायों द्वारा मनाया जाने वाला मौसमी नववर्ष उत्सव है। इसमें उत्सवी भोजन, पारिवारिक एकत्रीकरण और प्रतीकात्मक अनुष्ठान इसकी विशेष पहचान हैं।
  • योग, जिसे 2016 में सूची में शामिल किया गया, भारत की प्राचीन दर्शन परंपरा और जीवन शैली का विस्तृत स्वरूप है। यह शारीरिक साधना के साथ मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन की दिशा प्रस्तुत करता है।
  • कुंभ मेला, 2017 में सूचीबद्ध, भारत का विशाल आध्यात्मिक आयोजन है। श्रद्धालु विभिन्न तीर्थ स्थलों पर निश्चित अंतराल में एकत्र होते हैं और धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं।
  • कोलकाता की दुर्गा पूजा, 2021 में सूची में शामिल की गई। इसमें उत्सव के दौरान भव्य पंडाल, शिल्पकला, सामुदायिक सहभागिता और शहरी सांस्कृतिक रचनात्मकता इसका मुख्य आधार बनते हैं।
  • गरबा, 2023 में शामिल, गुजरात की लोकनृत्य परंपरा का ऊर्जा से भरपूर रूप है। नवरात्रि के दौरान वर्तुल गति में किया जाने वाला यह नृत्य स्त्री शक्ति के सम्मान को प्रकट करता है।
  • दीपावली, 2025 की नवीनतम प्रविष्टि, पूरे भारत में विविध रूपों में मनाया जाने वाला प्रकाश पर्व है। अंधकार पर प्रकाश और अज्ञान पर ज्ञान की जीत इसकी मूल भावना है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *