बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के कुछ महीने पहले यानी 17 जुलाई को ,बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने मुफ्त में बिजली देने की घोषणा करते हुए कहा है कि 1 अगस्त, 2025 से यानी जुलाई माह के बिल से ही राज्य के सभी घरेलू उपभोक्ताओं को 125 यूनिट तक बिजली का कोई पैसा नहीं देना पड़ेगा। इससे राज्य के कुल 1 करोड़ 67 लाख परिवारों को लाभ होगा। इस घोषणा ने एक बार फिर भारत में “फ्रीबी कल्चर” या मुफ्त योजनाओं पर राष्ट्रीय बहस को तेज कर दिया है।
मुफ्त रेवड़ी (Freebies Culture) से तात्पर्य उन सरकारी योजनाओं या वादों से है, जिनके तहत नागरिकों को मुफ्त में वस्तुएं, सेवाएं या सुविधाएं प्रदान की जाती हैं । जैसे मुफ्त बिजली, पानी, मोबाइल फोन, लैपटॉप, रसोई गैस, बस यात्रा आदि बिना किसी आर्थिक योगदान या मेहनत के। ये वादे प्रायः चुनावों के समय किए जाते हैं ताकि मतदाताओं को आकर्षित किया जा सके।
भारत में चुनाव से पहले ऐसी फ्रीबीज की घोषणाएं होती रहती है उदाहरण के लिए अभी बिहार में चुनाव नजदीक हैं ।
बिहार सरकार ने घोषणा कर दी लेकिन पीछे झांककर देखें तो ऐसे अनगिनत मामले सामने आते हैं जैसे दिल्ली सरकार द्वारा मुफ्त पानी (2015),200 यूनिट तक मुफ्त बिजली और महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा ,
तमिलनाडु सरकार द्वारा(2021) “पुदुमाई पेन योजना” छात्राओं के लिए मासिक नकद सहायता),चुनावों में फ्री वॉशिंग मशीन, स्कूटी जैसे वादे भी किए गए,
आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा 2024 (चुनावी वर्ष):कई कैश ट्रांसफर योजनाएं फिर से लॉन्च की गईं,फ्री आवास, स्वास्थ्य बीमा, और फ्री बिजली जैसी घोषणाएं भी दोहराई गईं ।
मध्यप्रदेश में, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2023 में “मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना” शुरू कीजिसके तहत 18 से 60 वर्ष की आयु की महिलाओं को प्रतिमाह ₹1,250 की नकद सहायता दी जाती है। जो अपने आप में एक फ्लैगशिप योजना बन कर उतरी महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में ।

इस योजना का लक्ष्य ग्रामीण और निम्न आय वर्ग की महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करना है, लेकिन चुनावी वर्ष में इसकी शुरुआत ने इसे स्पष्ट रूप से “महिला वोट बैंक साधने का प्रयास” बना दिया ।
महाराष्ट्र में भी हुआ -महाराष्ट्र में, शिंदे-फडणवीस सरकार ने “मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना” की तर्ज पर “मुख्यमंत्री माजी सखी योजना” और अन्य नकद सहायता योजनाओं की घोषणा की।
यहां भी इसका मकसद था कि ग्रामीण और वंचित वर्ग की महिलाओं को सीधे आर्थिक लाभ देकर उन्हें राजनीतिक रूप से जोड़ने का प्रयास किया जाए।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी फ्रीबीज की घोषणाएँ करती हो विपक्ष दल भी इसमें शामिल है जैसे बिहार में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी कल्याणकारी वादों की एक श्रृंखला का अनावरण किया था, जिसमें 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली भी शामिल थी।
निस्संदेह, सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकारों द्वारा जन-कल्याणकारी योजनाएं लाना आवश्यक है और यह विशेष रूप से संविधान के राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत के अनुरूप भी है,
लेकिन जब ये योजनाएं केवल चुनावी लाभ के लिए बिना किसी दीर्घकालिक योजना और संसाधन प्रबंधन के लागू की जाती हैं, तो ये राजकोषीय अनुशासन, विकास प्राथमिकताओं और समाज की आत्मनिर्भरता पर नकारात्मक असर डालती हैं।
क्यूंकि अभी बिहार की बात हो रही है ,तो हो सकता है कि मुफ्त बिजली का वादा आर्थिक रूप से संघर्षरत वर्गों को राहत देने की मंशा से प्रेरित है।
लेकिन इससे जुड़ा मुख्य सवाल यह है कि क्या राज्य की वर्तमान वित्तीय स्थिति इस योजना को टिकाऊ रूप से लागू करने में सक्षम है? इस योजना की वार्षिक अनुमानित लागत = ₹25,000–26,000 करोड़ होने वाली है जिसमें प्रशासनिक और अन्य तकनीकी लागतें, शामिल नहीं हैं।
राज्य पहले से ही भारी कर्ज के बोझ से दबा हुआ है।बिहार सरकार की कुल उधारी में पिछले वर्षों में तेज वृद्धि हुई है। 2023–24 के अंत तक, अनुमानित कुल ऋण राज्य की GSDP का लगभग 32% था।
यह कर्ज मुख्य रूप से राज्य विकास ऋण (State Development Loans), NABARD, और केन्द्र से प्राप्त उधार के माध्यम से लिया गया है। राज्य का ऋण-से-GSDP अनुपात (Debt-to-GSDP ratio) लगातार बढ़ रहा है, जो राज्य की दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा है। RBI और 15वें वित्त आयोग ने भी इस ट्रेंड पर चिंता जताई है।
मुफ्त बिजली की आपूर्ति से सरकारी खर्चों में बेतहाशा वृद्धि होगी, जिसे या तो कर्ज लेकर या अन्य सेवाओं के बजट में कटौती करके पूरा किया जाएगा।
इसके साथ ही यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि मुफ्त सेवाओं की संस्कृति नागरिकों में उपभोग की आदत को बढ़ावा देती है और उत्तरदायित्व की भावना को कम करती है। मुफ्त बिजली के चलते ऊर्जा संरक्षण जैसे मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने भी पूर्व में चिंता जताते हुए कहा था कि चुनावों में मुफ्त वादे लोकतंत्र को नुकसान पहुँचा सकते हैं यदि उन्हें संस्थागत नीति के बजाय राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाए।
समाधान किसी एक छोर पर नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह लक्षित सब्सिडी, समावेशी विकास, और राजस्व सुधार जैसे स्थायी उपायों पर ध्यान दे। गरीबों की मदद जरूरी है, लेकिन वह क्षमता निर्माण और अवसर विस्तार के माध्यम से होनी चाहिए, न कि मुफ्तखोरी की आदत डालकर।
अंततः, भारत को “फ्रीबी कल्चर” और “कल्याणकारी राज्य” के बीच संतुलन बनाना होगा। वरना हम राजनीतिक लोकप्रियता की दौड़ में आर्थिक आत्मघात की ओर बढ़ते रहेंगे।
