हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु के दौरे पर थे । वहां उन्होंने गंगईकोंडा चोलपुरम की यात्रा की, जो चोल वंश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और स्थापत्य धरोहर का एक गौरवशाली प्रतीक है। यह यात्रा महान चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम की जयंती के अवसर पर आयोजित “आदि तिरुवथिरई उत्सव” के समापन समारोह के अंतर्गत हुई।
प्रधानमंत्री ने एक भव्य रोड शो के माध्यम से गंगईकोंडा चोलपुरम स्थित बृहदेश्वर मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ विधिवत पूजा-अर्चना कर चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक विरासत को श्रद्धांजलि अर्पित की।
अब आइए, इस भव्य मंदिर गंगईकोंडा चोलपुरम के ऐतिहासिक गौरव और स्थापत्य विशेषताओं को विस्तार से जानें।

स्थान और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर तमिलनाडु के अरियालुर जिले में स्थित एक ऐतिहासिक मंदिर है। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा करवाया गया था। यह मंदिर यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में शामिल ‘ग्रेट लिविंग चोल टेम्पल्स’ का हिस्सा है, जिसमें तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर और दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर भी शामिल हैं।
समर्पण और नामकरण
यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इसका नाम ‘गंगईकोंडा चोलपुरम’ का अर्थ है “गंगा को जीतने वाला चोल”, जो राजेंद्र चोल की गंगा नदी तक की सैन्य विजय का प्रतीक है। इस विजय के बाद उन्होंने इस मंदिर को नई राजधानी के रूप में स्थापित किया।
वास्तुकला और निर्माण
मंदिर द्रविड़ स्थापत्य शैली में निर्मित है, जो चोल कालीन शिल्पकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है।
- मुख्य गर्भगृह की ऊँचाई 55 मीटर है।
- इसमें 13.5 फीट ऊँचा शिवलिंग स्थापित है, जो दक्षिण भारत के सबसे विशाल शिवलिंगों में से एक माना जाता है।
- मंदिर में जटिल नक्काशियाँ, कलात्मक मूर्तियाँ और भव्य स्तंभ हैं।
महत्वपूर्ण मंडप और संरचनाएं
मंदिर परिसर में कई महत्वपूर्ण भाग हैं, जैसे –
- नंदी मंडप (भगवान शिव के वाहन नंदी की मूर्ति युक्त)
- अलंकार मंडप
- महा मंडप (विशाल सभा स्थल) यह परिसर धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है।
राजधानी के रूप में महत्व
गंगईकोंडा चोलपुरम लगभग 250 वर्षों तक चोल साम्राज्य की राजधानी रहा। यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह चोल साम्राज्य की राजनीतिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य उपलब्धियों का भी प्रतीक है।
अब आइए राजेंद्र चोल प्रथम के बारे में विस्तार से जानें:
राजेंद्र चोल प्रथम (1014–1044 ई.) भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली, सफल और रणनीतिक शासकों में गिने जाते हैं। वे चोल सम्राट राजराजा चोल प्रथम के पुत्र थे और उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य अपनी सांस्कृतिक, सैन्य और प्रशासनिक ऊँचाइयों तक पहुँच गया।
विस्तारवादी नीति और सैन्य विजय अभियान
- उन्होंने चोल साम्राज्य की सीमाओं को तुंगभद्रा नदी से लेकर गोदावरी और गंगा तक फैलाया।
- पश्चिमी चालुक्यों और पांड्य राजाओं को पराजित किया।
- पांड्य राजा श्रीलंका भागे, लेकिन राजेंद्र ने श्रीलंका पर आक्रमण कर उसे भी अधीन कर लिया।
- उत्तर भारत के पाल शासक महिपाल को पराजित कर उन्होंने “गंगईकोंडा” (गंगा का विजेता) की उपाधि प्राप्त की।
नौसैनिक शक्ति और समुद्री विजय
- उन्होंने श्रीविजय साम्राज्य (दक्षिणी सुमात्रा) पर नौसैनिक आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
- यह अभियान दक्षिण-पूर्व एशिया के वाणिज्यिक मार्गों को नियंत्रित करने और मलाया प्रायद्वीप से व्यापार बढ़ाने के लिए किया गया था।
- इससे चोल साम्राज्य एक महासागर शक्ति (maritime power) बन गया।
गंगईकोंडा चोलपुरम: नई राजधानी की स्थापना
- उत्तर भारत की विजयों की स्मृति में उन्होंने गंगईकोंडा चोलपुरम की स्थापना की और इसे नई राजधानी बनाया।
- इस नगर में एक भव्य शिव मंदिर का निर्माण किया गया जो आज भी चोल स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण है।
- यह मंदिर और नगर लगभग 250 वर्षों तक चोल शासन का केंद्र बना रहा।
उपाधियाँ और प्रतिष्ठा
राजेंद्र चोल प्रथम ने अपने यश और विजय को दर्शाते हुए कई उपाधियाँ धारण कीं:
- गंगाईकोंडान – गंगा का विजेता
- कदरामकोंडान – कदराम (सुमात्रा का हिस्सा) का विजेता
- मुदिकोंडा चोलन – चोल ताजधारी
- पंडित चोलन – विद्वान शासक
ऐतिहासिक दस्तावेज और अभिलेख
राजेंद्र चोल प्रथम की सैन्य उपलब्धियों, प्रशासनिक दक्षता और धार्मिक योगदानों की जानकारी हमें अनेक शिलालेखों और अभिलेखों से प्राप्त होती है। इनमें विशेष रूप से तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र शिलालेख और तिरुमलाई शिलालेख उल्लेखनीय हैं। इन अभिलेखों में उनके विजयों का वर्णन विस्तार से किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने न केवल दक्षिण भारत में बल्कि उत्तर भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया तक चोल साम्राज्य का प्रभाव स्थापित किया। ये शिलालेख चोल प्रशासन की शक्ति, धर्मनिष्ठा और दूरदर्शिता के महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
उत्तराधिकार और निरंतरता
राजेंद्र चोल प्रथम की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजाधिराज प्रथम ने गद्दी संभाली और पिता की विजय परंपरा को आगे बढ़ाया। उनके शासन में भी चोल साम्राज्य की शक्ति बनी रही। राजाधिराज प्रथम के पश्चात राजेंद्र द्वितीय ने चोल सिंहासन संभाला, जिससे यह स्पष्ट होता है कि चोल साम्राज्य में सत्ता का उत्तराधिकार सुव्यवस्थित ढंग से चलता रहा और राजेंद्र चोल प्रथम की विरासत लंबे समय तक जीवित रही।