भारत सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय कदम उठा रही है कि “मेड इन इंडिया” लेबल वाले सभी उत्पाद निर्धारित गुणवत्ता मानकों का पालन करें। इसके लिए उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (DPIIT) और उपभोक्ता मामलों का विभाग विशेष निगरानी और जांच कर रहे हैं।
इस पहल का उद्देश्य उपभोक्ताओं को भरोसा दिलाना है कि “मेड इन इंडिया” टैग केवल उन्हीं उत्पादों पर होगा, जो घरेलू विनिर्माण और मूल्य संवर्धन नियमों के अनुरूप हों।

प्रामाणिकता सत्यापित करने के लिए मुख्य नियम और मानदंड:
- न्यूनतम मूल्य संवर्धन / स्थानीय सामग्री: अधिकांश “मेड इन इंडिया” उत्पादों में कम से कम 50% सामग्री या मूल्य भारत में निर्मित होना जरूरी है, हालांकि कुछ उद्योगों में विशेष परिस्थितियों में अपवाद दिया जा सकता है।
- विनिर्माण और सोर्सिंग ऑडिट: यह सुनिश्चित करने के लिए कि उत्पाद वास्तव में “मेड इन इंडिया” हैं, यह जांच की जाती है कि उत्पाद कहाँ बनाए जा रहे हैं, कच्चा माल और घटक कहाँ से आ रहे हैं, और अंतिम उत्पाद की लागत में कितना हिस्सा भारत में उत्पन्न हुआ।
- स्पॉट चेक और रैंडम सैंपलिंग: बीआईएस बाजार से उत्पादों के रैंडम नमूने लेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि उनकी लेबलिंग सही है, जैसे उत्पाद का मूल देश और स्थानीय सामग्री।
- मेड इन इंडिया लेबल योजना (अगस्त 2025 से): योग्य उत्पादों पर एक लोगो और क्यूआर कोड दिखाया जा सकता है, जिसमें निर्माण स्थान और लेबल की वैधता जैसी जानकारी शामिल होगी।
“मेड इन इंडिया” लेबल की सख्त जांच क्यों है महत्वपूर्ण:
- उपभोक्ता विश्वास और पारदर्शिता: लोग भरोसे के साथ खरीद पाएंगे कि “मेड इन इंडिया” सचमुच भारतीय उत्पाद है, सिर्फ आयातित हिस्सों का जोड़ नहीं।
- स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा: यह कदम मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत जैसी नीतियों को मजबूत करता है और सुनिश्चित करता है कि सरकारी लाभ केवल असली भारतीय उत्पादन को मिलें।
- गुणवत्ता और मानक: BIS(Bureau of Indian Standards) की निगरानी से यह पक्का होगा कि “मेड इन इंडिया” टैग गुणवत्ता की गारंटी है, सिर्फ नाम भर नहीं।
- नियमों का पालन और सख्ती: गलत लेबलिंग या भ्रामक दावों पर कार्रवाई होगी, जिससे कंपनियां नियम मानने के लिए बाध्य होंगी।
“मेड इन इंडिया” लेबल से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ:
- मूल्य संवर्धन की परिभाषा: अलग-अलग उद्योगों में स्थिति अलग होती है। जैसे मोबाइल या इलेक्ट्रॉनिक्स में आयातित पुर्जे जरूरी होते हैं, इसलिए सभी के लिए एक समान सीमा तय करना कठिन है।
- अनुपालन लागत: छोटे निर्माता और एमएसएमई के लिए ऑडिट, लेबलिंग बदलाव, क्यूआर कोड और BIS(Bureau of Indian Standards) टेस्ट कराना महंगा और जटिल हो सकता है।
- प्रवर्तन की मुश्किलें: दूरदराज़ या अनौपचारिक क्षेत्रों में और निर्यात के मामलों में नियमों का सख्त पालन कराना चुनौतीपूर्ण होगा।
- दुरुपयोग की संभावना: कई बार आयातित पुर्जों को भारत में जोड़कर “मेड इन इंडिया” का दावा किया जा सकता है। इसे रोकना जरूरी होगा।
- उपभोक्ता जागरूकता: नियम तभी असरदार होंगे जब लोग लेबल, क्यूआर कोड और BIS मार्क की जांच करना सीखेंगे।
अब अगला कदम क्या?
- DPIIT और BIS अलग-अलग उत्पादों के लिए विस्तृत नियम और पात्रता मानदंड जारी करेंगे।
- मेड इन इंडिया लेबल योजना को और आगे बढ़ाया जाएगा, जिसमें ऑडिट, क्यूआर कोड और लेबल वैधता जांच सामान्य प्रक्रिया बन जाएगी।
- गलत लेबलिंग पर सख्ती लगाने के लिए BIS और उपभोक्ता मामलों का विभाग ज्यादा नमूने लेकर जांच करेगा और नियम तोड़ने वालों पर कार्रवाई होगी।
- जो उत्पाद इन मानकों को पूरा करेंगे, उन्हें सरकारी खरीद में वरीयता दी जाएगी।
आइये जानते है मेड इन इंडिया लेबल योजना के बारे में:
यह योजना भारतीय उत्पादों को एक विशिष्ट पहचान और भरोसेमंद गुणवत्ता देने के लिए बनाई गई है। इसके तहत जिन उत्पादों में निर्धारित स्थानीय सामग्री और मानक पूरे होते हैं, उन्हें “मेड इन इंडिया” लेबल दिया जाएगा। लेबल पर एक लोगो और क्यूआर कोड होगा, जिससे उपभोक्ता आसानी से निर्माण स्थान, गुणवत्ता और लेबल की वैधता की जानकारी देख सकेंगे।
मेड इन इंडिया लेबल योजना का उद्देश्य:
- भारतीय मूल के वस्तुओ और अन्य उत्पादों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना।
- घरेलू सामान को एक मजबूत ब्रांड पहचान दिलाना।
- उपभोक्ताओं में गुणवत्ता और प्रामाणिकता पर विश्वास बढ़ाना।
- आत्मनिर्भर भारत और वोकल फॉर लोकल अभियानों को आगे बढ़ाना।
निष्कर्ष:
“मेड इन इंडिया” लेबल की प्रामाणिकता सुनिश्चित करने का उद्देश्य केवल ब्रांडिंग नहीं, बल्कि गुणवत्ता और विश्वास को मज़बूत करना है। स्पष्ट मानदंड और BIS की निगरानी से यह टैग असली मूल्य का प्रतीक बनेगा। यदि छोटे निर्माताओं पर बोझ डाले बिना संतुलन साधा गया, तो यह पहल भारतीय उत्पादों को घरेलू और वैश्विक स्तर पर नई पहचान दिलाएगी।