संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की “इमीशन्स गैप रिपोर्ट 2025” के अनुसार, भारत अब दुनिया के प्रमुख ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देशों में शामिल हो गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में तेजी से बढ़ती औद्योगिक गतिविधियाँ, ऊर्जा की बढ़ती मांग और शहरीकरण की गति ने पर्यावरण पर गहरा प्रभाव डाला है। यद्यपि भारत नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति कर रहा है, लेकिन उत्सर्जन में वृद्धि यह दर्शाती है कि पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाना अब और भी आवश्यक हो गया है।
UNEP की इमीशन्स गैप रिपोर्ट 2025 के प्रमुख बिंदु
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा जारी इमीशन्स गैप रिपोर्ट 2025 में कहा गया है कि वर्ष 2024 में G20 देशों (अफ्रीकी संघ को छोड़कर) ने विश्व के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 77 प्रतिशत हिस्सा उत्पन्न किया। यह आंकड़ा पिछले वर्ष की तुलना में 0.7 प्रतिशत की वृद्धि को दर्शाता है, जो दर्शाता है कि अब तक किए गए जलवायु वादे पर्याप्त नहीं हैं।
- रिपोर्ट के अनुसार, पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में दुनिया अभी भी काफी पीछे है। मौजूदा नीतियों और नए जलवायु संकल्पों के बावजूद, सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 2.8°C तक वृद्धि की आशंका जताई गई है। इस स्तर की वृद्धि मानव स्वास्थ्य, कृषि उत्पादन, और तटीय पारिस्थितिक तंत्र के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकती है।
- रिपोर्ट में भारत और चीन को उन देशों में गिना गया है, जिनके उत्सर्जन में सबसे अधिक परिमाणात्मक वृद्धि दर्ज की गई है (भूमि उपयोग परिवर्तन और वनों की कटाई को छोड़कर)। वहीं, इंडोनेशिया को विकासशील देशों में सबसे तेज उत्सर्जन वृद्धि वाले देश के रूप में चिन्हित किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि यूरोपीय संघ छह प्रमुख उत्सर्जक अर्थव्यवस्थाओं — चीन, अमेरिका, रूस, भारत, जापान और यूरोपीय संघ — में से एकमात्र क्षेत्र रहा जिसने 2024 में अपने कुल उत्सर्जन में गिरावट दर्ज की।
- रिपोर्ट के अनुसार, यदि सभी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) पूर्ण रूप से लागू भी किए जाएँ, तब भी वैश्विक तापमान में 2.3°C से 2.5°C तक की वृद्धि संभावित है। 2030 के शुरुआती दशक में ही पृथ्वी का औसत तापमान अस्थायी रूप से 1.5°C की सीमा पार करने की संभावना जताई गई है। इस “ओवरशूट” की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए दुनिया को कार्बन डाइऑक्साइड हटाने (CDR) वाली तकनीकों पर निर्भर रहना पड़ सकता है, जो अभी महंगी और अनिश्चित हैं। रिपोर्ट के अनुसार यदि तापमान 0.1°C भी अधिक बढ़ जाता है, तो उसे घटाने के लिए दुनिया को पाँच वर्षों के कुल कार्बन उत्सर्जन के बराबर गैस को स्थायी रूप से हटाना होगा।
- UNEP की रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व को 2030 तक 2019 के स्तर से कम से कम 43 प्रतिशत उत्सर्जन अनिवार्य रूप से घटाना होगा, तभी 1.5°C का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। इसके लिए देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, पुनर्वनीकरण, और निम्न-कार्बन प्रौद्योगिकी में निवेश बढ़ाना चाहिए। साथ ही, रिपोर्ट यह भी सुझाव देती है कि कोयला और जीवाश्म ईंधनों का क्रमिक उन्मूलन किया जाए तथा विकासशील देशों को जलवायु वित्त और तकनीकी सहयोग के माध्यम से सहायता दी जाए।
वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत की बढ़ती भूमिका
- हाल के वर्षों में भारत वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन के प्रमुख योगदानकर्ताओं में शामिल हो गया है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के Emissions Gap Report 2025 के अनुसार, भारत की उत्सर्जन दर में प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की गई है, भूमि उपयोग और वानिकी गतिविधियों को छोड़कर। इस वृद्धि ने भारत, चीन और अमेरिका के साथ शीर्ष तीन उत्सर्जक देशों में शामिल हो गया है।
- भारत में GHG उत्सर्जन मुख्यतः चार क्षेत्रों से उत्पन्न होते हैं: ऊर्जा उत्पादन, परिवहन, उद्योग, और कृषि। इनमें ऊर्जा क्षेत्र सबसे बड़ा योगदानकर्ता है, क्योंकि भारत अभी भी कोयले पर आधारित विद्युत उत्पादन पर निर्भर है। कोयला आधारित पावर प्लांट्स भारत की कुल बिजली का लगभग 70% प्रदान करते हैं। तेजी से बढ़ती बिजली की मांग कोयले की खपत में वृद्धि का मुख्य कारण बनी है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) के अनुसार, 2024 में कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों से लगभग 1.3 बिलियन टन CO₂ समकक्ष उत्सर्जन हुआ।
- परिवहन क्षेत्र भी उत्सर्जन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। 2024 में परिवहन क्षेत्र ने भारत के कुल CO₂ उत्सर्जन का लगभग 10% हिस्सा दिया। पेट्रोल और डीज़ल वाहनों का वर्चस्व अभी भी कायम है। शहरों में बढ़ती आबादी और निजी वाहनों की संख्या में वृद्धि भी उत्सर्जन स्तर बढ़ाने में सहायक रही है। 2024 में भारत की 36% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती थी, और यह आंकड़ा 2030 तक 40% तक पहुँचने की संभावना है।
- औद्योगिक क्षेत्र भी उत्सर्जन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस क्षेत्र में इस्पात, सीमेंट और विनिर्माण उद्योगों का तेजी से विस्तार हुआ है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वहीं, कृषि क्षेत्र में विशेषकर पशुपालन से उत्पन्न मीथेन और धान की खेती से निकलने वाली गैसों के कारण भी GHG उत्सर्जन में वृद्धि होती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024 में भारत की प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में कोयले का हिस्सा लगभग 55% था।
भारत में बढ़ते उत्सर्जन का प्रभाव
- भारत में ग्रीनहाउस गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन ने पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक तंत्र पर गंभीर प्रभाव डाला है। पर्यावरणीय ह्रास के रूप में उच्च उत्सर्जन से वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि, प्रदूषण और मौसमी अस्थिरता बढ़ रही है। ग्रीनहाउस गैसों के लगातार वृद्धि से अधिक गैसें वातावरण में ऊष्मा को रोकने का कार्य करती हैं, जिससे वर्षा के पैटर्न बदल जाते हैं और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ जाती है। भारत में गर्म लहरें, बाढ़ और सूखा जैसी घटनाएँ अधिक बार देखने को मिल रही हैं। ये बदलाव जैव विविधता को प्रभावित कर रहे हैं, जिससे जंगलों और नदियों की स्थिति बिगड़ रही है और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो रहा है।
- वायु गुणवत्ता में गिरावट भी गंभीर समस्या बन गई है। बढ़ते उत्सर्जन से प्रदूषण बढ़ता है और लाखों लोग इन विषैले कणों के संपर्क में आते हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) बार-बार सुरक्षित स्तर से ऊपर दर्ज होता है। भारत में प्रदूषित हवा से श्वसन संबंधी रोग, हृदय रोग और समयपूर्व मृत्यु की घटनाएँ बढ़ रही हैं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़ रिपोर्ट 2024 के अनुसार, खराब वायु गुणवत्ता के कारण भारत में हर साल 20 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
- आर्थिक नुकसान भी उल्लेखनीय हैं। उत्सर्जन के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन से कृषि, उद्योग और श्रम क्षेत्र की उत्पादकता प्रभावित हो रही है। असामान्य मानसून, तापमान में वृद्धि और कीटों के बढ़ते हमले फसल की पैदावार घटा रहे हैं और किसानों की आय अस्थिर हो रही है। औद्योगिक गतिविधियाँ भी ऊर्जा की कमी और जल संकट के कारण बाधित हो रही हैं। इस प्रकार, बढ़ते उत्सर्जन के कारण पर्यावरणीय दबाव और आर्थिक नुकसान बढ़ रहा है, जो राष्ट्रीय विकास को धीमा कर रहा है।
भारत की अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौतों के तहत प्रतिबद्धताएँ
- भारत ने वैश्विक जलवायु संरक्षण में अपनी भूमिका को मजबूती देने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों और नीतियों को अपनाया है। सबसे महत्वपूर्ण समझौता है पेरिस समझौता (Paris Agreement, 2015), जिसे भारत ने 2 अक्टूबर 2016 को औपचारिक रूप से अपनाया। पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति पूर्व स्तर से 1.5°C से अधिक न होने देना और 2°C के भीतर सीमित रखना है। इसके तहत भारत ने अपनी प्रथम नेशनल डिटरमाइंड कंन्ट्रिब्यूशन्स (NDCs) 2015 में प्रस्तुत की, जिसमें उत्सर्जन घटाने, नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने और वन आधारित कार्बन सिंक बढ़ाने के लक्ष्य शामिल थे।
- भारत ने 2022 में अपनी अपडेटेड NDC संयुक्त राष्ट्र के UNFCCC के समक्ष प्रस्तुत की। इसमें भारत ने 2030 तक अपनी GDP की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर की तुलना में 45% कम करने का लक्ष्य रखा। इसके अतिरिक्त, भारत ने यह भी प्रतिबद्ध किया कि 2030 तक देश की कुल स्थापित विद्युत क्षमता का लगभग 50% नॉन-फॉसिल ईंधन स्रोतों से प्राप्त होगा।
- भारत ने वैश्विक जलवायु वार्ताओं में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हुए, COP26, ग्लासगो (2021) में अपनी नेट-ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य 2070 की घोषणा की। इसे पंचामृत के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें पांच प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए गए:
- 500 GW गैर-फॉसिल ईंधन आधारित ऊर्जा क्षमता हासिल करना।
- अपनी कुल ऊर्जा जरूरतों का 50% नवीकरणीय स्रोतों से पूरा करना।
- 1 बिलियन टन कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना।
- GDP की उत्सर्जन तीव्रता को 45% तक कम करना।
- 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करना।
ये लक्ष्य भारत के ऊर्जा संक्रमण (Energy Transition) और सतत विकास की दिशा में स्पष्ट रोडमैप प्रदान करते हैं। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और हाइड्रोजन जैसी नई तकनीकों को अपनाकर भारत अपनी उर्जा मिश्रण (Energy Mix) को स्वच्छ और टिकाऊ बनाने की दिशा में काम कर रहा है।
भारत में उत्सर्जन घटाने के लिए सरकारी नीतियाँ और हरित पहल
- सबसे व्यापक पहल राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC) है, जिसे 2008 में प्रधानमंत्री के जलवायु परिवर्तन परिषद द्वारा शुरू किया गया। यह योजना जलवायु संरक्षण के लिए नीति ढांचा प्रदान करती है और आठ प्रमुख मिशनों के माध्यम से कार्यान्वित की जाती है। इन मिशनों में सौर ऊर्जा, टिकाऊ कृषि, ऊर्जा दक्षता, जल संरक्षण जैसे क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
- राष्ट्रीय सौर मिशन (Jawaharlal Nehru National Solar Mission), जनवरी 2010 में शुरू किया गया, भारत की सबसे सफल नवीकरणीय ऊर्जा पहल में से एक है। इसका उद्देश्य सौर ऊर्जा के व्यापक उपयोग को बढ़ावा देकर जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम करना है। प्रारंभिक लक्ष्य 2022 तक 20 GW सौर क्षमता प्राप्त करना था, लेकिन तेज प्रगति के कारण इसे बढ़ाकर 100 GW कर दिया गया। इस मिशन के तहत सौर पार्क, रूफटॉप इंस्टॉलेशन और ऑफ-ग्रिड सौर समाधान को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- राष्ट्रीय पवन ऊर्जा मिशन का उद्देश्य पवन ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाना और नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करना है। भारत दुनिया के शीर्ष चार पवन ऊर्जा उत्पादकों में शामिल है। इस मिशन का लक्ष्य 2030 तक 140 GW पवन ऊर्जा क्षमता प्राप्त करना है। इसमें नई तकनीक अपनाने, ग्रिड कनेक्टिविटी सुधारने और ऑफशोर पवन परियोजनाओं को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान दिया गया है।
- राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, 15 अगस्त 2021 को लॉन्च किया गया, भारत को हरित हाइड्रोजन उत्पादन का वैश्विक केंद्र बनाने की दिशा में है। यह मिशन सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कर हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा देता है। सरकार का लक्ष्य 2030 तक प्रति वर्ष 5 मिलियन टन हरित हाइड्रोजन का उत्पादन करना है। यह पहल इस्पात, सीमेंट और उर्वरक जैसे उद्योगों के डिकार्बोनाइजेशन में मदद करती है।
- प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY), मई 2016 में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा शुरू की गई थी। जिसका उद्देश्य निम्न-आय वाली महिलाओं को LPG कनेक्शन प्रदान करना है, ताकि पारंपरिक ईंधनों जैसे लकड़ी, कोयला और गोबर का उपयोग कम हो। 2025 तक इस योजना के तहत 9.6 करोड़ से अधिक कनेक्शन वितरित किए जा चुके हैं। इससे न केवल कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार और ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण में भी मदद मिली है।
- FAME इंडिया योजना (Faster Adoption and Manufacturing of Electric Vehicles), 2015 में राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन योजना (NEMMP) के तहत शुरू की गई। इसका उद्देश्य इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) के उपयोग को बढ़ावा देना है। FAME-II, 2019 में शुरू हुई, मुख्य रूप से इलेक्ट्रिक बसों, दोपहिया वाहनों और चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देती है। इस योजना ने बड़े शहरों में ईंधन खपत और शहरी वायु प्रदूषण में कमी लाने में मदद की है।
- राष्ट्रीय बायोएनेर्जी मिशन, 2014 में लॉन्च किया गया, कृषि अवशेषों, पशु अपशिष्ट और शहरी ठोस कचरे से बिजली उत्पादन को प्रोत्साहित करता है। यह मिशन बायोगैस संयंत्र, बायोमास गैसीफायर और सह-जनन परियोजनाओं को बढ़ावा देता है।
- ग्रीन इंडिया मिशन, 2014 में शुरू किया गया था। जिसका उद्देश्य वन और पेड़ का आवरण बढ़ाकर कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करना है। यह मिशन 50 लाख हेक्टेयर की अविकसित वन भूमि का पुनर्वास करने और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को सुधारने पर केंद्रित है। भारत की स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2023 के अनुसार, देश का कुल वन और वृक्ष आवरण 24.6% तक पहुंच गया है। यह मिशन भारत की पर्यावरणीय पुनर्स्थापना और जलवायु लचीलापन में प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
निष्कर्ष:
अभी भारत ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जहां तेजी से विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। इसके लिए देश को कम कार्बन उत्सर्जन वाले विकास मार्ग को अपनाना चाहिए, जो आर्थिक प्रगति के साथ पारिस्थितिक संरक्षण को भी सुनिश्चित करे। इसके लिए सौर, पवन और हरित हाइड्रोजन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की क्षमता बढ़ाना आवश्यक है, ताकि कोयला और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम हो। सार्वजनिक परिवहन, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी और औद्योगिक व घरेलू ऊर्जा दक्षता को मजबूत करना उत्सर्जन घटाने में सहायक होगा। इसी के साथ जलवायु-स्मार्ट कृषि, वन संरक्षण और प्राकृतिक कार्बन अवशोषण बढ़ाने वाले उपाय भी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
