भारत ने तालिबान, पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ ट्रंप की बगराम एयरबेस पर कब्जे की योजना का विरोध किया, जाने क्या है मामला ?

इज़राइल और हमास के बीच लंबे समय से जारी संघर्ष के बीच एक बड़ी कूटनीतिक सफलता सामने आई है। अमेरिका की मध्यस्थता के बाद दोनों पक्ष शांति योजना के पहले चरण पर सहमत हो गए हैं। इसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुद की।

Hamas-Israel agree on first phase of peace deal

भारत अब तालिबान, पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ मिलकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अफगानिस्तान में बगराम एयरबेस पर दोबारा नियंत्रण हासिल करने के प्रयास का विरोध कर रहा है। यह घोषणा ऐसे समय में आई है जब तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की नई दिल्ली यात्रा तय है- जो किसी वरिष्ठ तालिबान राजनयिक की भारत की पहली ऐतिहासिक यात्रा होगी।

 

मॉस्को फॉर्मेट के बयान में क्या कहा गया?

मॉस्को फ़ॉर्मेट कंसल्टेशन ऑन अफगानिस्तान की सातवीं बैठक मॉस्को में हुई, जिसमें अफगानिस्तान, भारत, ईरान, कज़ाख़स्तान, चीन, किर्गिज़स्तान, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए। बेलारूस को इस बैठक में अतिथि के रूप में बुलाया गया था।

बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया कि किसी भी देश को अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी देशों में अपनी सैन्य सुविधाएं बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए ठीक नहीं है।

हालांकि बयान में बगराम एयरबेस का नाम सीधे तौर पर नहीं लिया गया, लेकिन इसे व्यापक रूप से ट्रंप की मांग के खिलाफ स्पष्ट संदेश के रूप में देखा जा रहा है।

trump's plan to take over bagram airbase

मॉस्को बैठक में अफगानिस्तान में शांति, स्थिरता और क्षेत्रीय सहयोग पर जोर

 

मॉस्को में हुई सातवीं मॉस्को फ़ॉर्मेट बैठक में सभी देशों ने इस बात पर सहमति जताई कि अफगानिस्तान को एक स्वतंत्र, एकजुट और शांतिपूर्ण देश के रूप में विकसित होना चाहिए। बैठक में आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त प्रयासों को मज़बूत करने और अफगानिस्तान से उभर रहे आतंकवादी खतरों को समाप्त करने की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया।

इस बैठक की खास बात यह रही कि तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी ने पहली बार अफगान प्रतिनिधि के रूप में इसमें भाग लिया-  जो तालिबान सरकार की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीमित स्वीकृति के बावजूद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत माना जा रहा है।

 

भारत ने बैठक में अफगानिस्तान में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाने की वकालत की और कहा कि बेहतर संपर्क से व्यापार, निवेश और मानवीय सहयोग को बल मिलेगा। इसके अलावा, प्रतिभागियों ने व्यापार, निवेश, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की प्रतिबद्धता भी जताई।

 

मॉस्को फ़ॉर्मेट कंसल्टेशन ऑन अफगानिस्तान: क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए मंच:

मॉस्को फ़ॉर्मेट कंसल्टेशन ऑन अफगानिस्तान एक क्षेत्रीय कूटनीतिक मंच है, जिसकी स्थापना 2017 में अफगानिस्तान में शांति, स्थिरता और राष्ट्रीय मेल-मिलाप को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। इस मंच में रूस, अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों और अन्य प्रमुख क्षेत्रीय साझेदारों की भागीदारी होती है। इसका उद्देश्य अफगानिस्तान से जुड़े मुद्दों पर व्यावहारिक समन्वय और सहयोग स्थापित करना है।

 

मुख्य उद्देश्य:

  • अफगानिस्तान के भीतर शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना।
  • राष्ट्रीय मेल-मिलाप और समावेशी सरकार के गठन में सहायता करना।
  • अफगानिस्तान को स्वतंत्र, एकजुट और शांतिपूर्ण राष्ट्र के रूप में विकसित करने में मदद करना, जो आतंकवाद और नशीले पदार्थों से मुक्त हो।
  • अफगानिस्तान के साथ क्षेत्रीय सहयोग और आर्थिक एकीकरण को प्रोत्साहित करना।
  • मानवीय संकट, आतंकवाद विरोधी प्रयास और नशा उन्मूलन जैसे प्रमुख मुद्दों पर समन्वित कदम उठाना।

 

भाग लेने वाले सदस्य:

मॉस्को फ़ॉर्मेट में अफ़ग़ानिस्तान, भारत, ईरान, कज़ाकिस्तान, चीन, किर्गिस्तान, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान के विशेष प्रतिनिधि और वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं। यह फ़ॉर्मेट उन कुछ अंतरराष्ट्रीय मंचों में से एक है जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार के साथ सीधे तौर पर जुड़ता है

 

7 वां मॉस्को फॉर्मेट कंसल्टेशन ऑन अफगानिस्तान:

7 अक्टूबर 2025 को मॉस्को में अफगानिस्तान पर 7वां मॉस्को फॉर्मेट कंसल्टेशन आयोजित किया गया। इस बैठक की सबसे खास बात यह रही कि पहली बार तालिबान-नेतृत्व वाला प्रतिनिधिमंडल पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल हुआ।

इस कदम को क्षेत्रीय देशों द्वारा तालिबान सरकार की आंशिक मान्यता और संवाद बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत माना जा रहा है। बैठक का उद्देश्य अफगानिस्तान में शांति, स्थिरता, आतंकवाद-निरोध और आर्थिक सहयोग को मजबूत करना था।

 

बगराम एयरबेस को लेकर ट्रंप और तालिबान में टकराव:

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के तालिबान शासकों से बगराम एयरबेस वापस सौंपने की मांग दोहराई है- यह वही बेस है जिसे अमेरिका ने 2020 के समझौते के बाद छोड़ा था।

  • 18 सितंबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्रंप ने कहा, “हमने उन्हें यह बेस बिना किसी कीमत के दे दिया। अब हम इसे वापस चाहते हैं।”
  • दो दिन बाद उन्होंने ट्रुथ सोशल पर चेतावनी दी, “अगर अफगानिस्तान ने बगराम एयरबेस उन लोगों को वापस नहीं किया जिन्होंने इसे बनाया था-तो बुरे परिणाम देखने को मिलेंगे।”

 

तालिबान का जवाब:

इसके जवाब में तालिबान ने इस मांग को सख्ती से खारिज कर दिया। संगठन के मुख्य प्रवक्ता ज़बीहुल्ला मुजाहिद ने कहा, “अफगान किसी भी परिस्थिति में अपनी भूमि किसी और को सौंपने की अनुमति नहीं देंगे।”

 

बगराम एयरफील्ड के बारे मे:

काबुल से लगभग 60 किलोमीटर उत्तर में स्थित बगराम एयरफील्ड अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है, जो परवान प्रांत में स्थित है। यह इलाका अफगानिस्तान की सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

परवान प्रांत से होकर गुजरने वाली 2.6 किलोमीटर लंबी सलांग सुरंग काबुल को मज़ार-ए-शरीफ और अन्य उत्तरी शहरों से जोड़ती है। इसके अलावा, इस प्रांत से निकलने वाले राजमार्ग काबुल को दक्षिण में गज़नी और कंधार, तथा पश्चिम में बामियान से जोड़ते हैं- जिससे यह देश की कनेक्टिविटी और सैन्य नियंत्रण का केंद्र बन जाता है।

बगराम एयरबेस का इतिहास:

 

  • सोवियत काल (1950 का दशक–1980 का दशक): बगराम एयरबेस का निर्माण 1950 के दशक में सोवियत संघ द्वारा किया गया था। 1979 से 1989 के बीच हुए सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान यह सोवियत सेना का एक प्रमुख सैन्य अड्डा बन गया और अफगानिस्तान में अभियान संचालन का केंद्र रहा।
  • गृहयुद्ध काल (1990 का दशक): सोवियत सेना की वापसी के बाद यह बेस खस्ताहाल हो गया और विभिन्न अफगान गुटों के बीच संघर्ष का मैदान बन गया। इस दौरान उत्तरी गठबंधन (Northern Alliance) और तालिबान के बीच इस एयरबेस पर नियंत्रण को लेकर तीव्र लड़ाई हुई।
  • अमेरिकी कब्ज़ा (2001–2021): 11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद अमेरिका और नाटो बलों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और बगराम एयरबेस पर कब्ज़ा कर उसे आधुनिक सैन्य अड्डे में बदल दिया। लगभग 20 वर्षों तक यह अमेरिकी सैन्य अभियानों का केंद्रीय केंद्र बना रहा। यहां दो बड़ी कंक्रीट रनवे, एक अस्पताल, भोजन सुविधाएं, और एक कैद केंद्र (Parwan Detention Facility) स्थापित किया गया। यह कैद केंद्र बाद में मानवाधिकार उल्लंघन और यातना के आरोपों के कारण अंतरराष्ट्रीय आलोचना का विषय बना।
  • अमेरिकी वापसी (2021): जुलाई 2021 में अमेरिकी सेनाओं ने गुप्त रूप से और अचानक बगराम एयरबेस खाली कर दिया और बिना किसी पूर्व सूचना के इसे अफगान सरकार को सौंप दिया। इस अप्रत्याशित वापसी के कारण लूटपाट की घटनाएं हुईं, जिसके बाद अफगान सेना ने स्थिति को नियंत्रण में लिया।

 

क्यों ट्रंप चाहते हैं बगराम एयरबेस वापस: चीन से जुड़ी सामरिक चिंताएँ-

  1. चीन की निकटता और सामरिक स्थिति: हालिया बयानों में डोनाल्ड ट्रंप ने यह स्पष्ट किया है कि बगराम एयरबेस की भौगोलिक स्थिति इसे चीन के पश्चिमी इलाकों, विशेष रूप से शिनजियांग प्रांत, के करीब बनाती है। उनका मानना है कि यह स्थान चीन की परमाणु गतिविधियों और रक्षा ढांचे की निगरानी (surveillance) के लिए रणनीतिक रूप से बेहद उपयोगी हो सकता है।
  2. चीन पर निगरानी की क्षमता: बगराम एयरबेस से अमेरिका को चीन के पश्चिमी परमाणु कार्यक्रमों और सैन्य ठिकानों पर खुफिया निगरानी रखने का एक महत्वपूर्ण vantage point मिल सकता है। ट्रंप का तर्क है कि इस क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति चीन की सैन्य गतिविधियों और तकनीकी विस्तार पर सीधा नज़र रखने में मदद करेगी।
  3. चीन के बढ़ते प्रभाव का संतुलन: अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी के बाद चीन का मध्य एशिया में प्रभाव तेजी से बढ़ा है- खासकर बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और खनन परियोजनाओं के माध्यम से। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अमेरिका फिर से बगराम एयरबेस पर नियंत्रण हासिल कर लेता है, तो यह चीन के बढ़ते क्षेत्रीय प्रभुत्व का प्रभावी संतुलन (counterbalance) बन सकता है।

 

बगराम एयरबेस पर ट्रंप की योजना का विरोध करने वाले देश:

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के पास स्थित बगराम एयरबेस पर नियंत्रण दोबारा पाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रयासों का भारत, पाकिस्तान सहित 10 एशियाई देशों ने एकजुट होकर विरोध किया है। यह फैसला हाल ही में आयोजित मॉस्को फॉर्मेट की सातवीं बैठक में लिया गया, जिसमें कई क्षेत्रीय शक्तियाँ शामिल थीं।

 

विरोध के प्रमुख कारण:

  1. तालिबान: तालिबान ने इसे अफगानिस्तान की संप्रभुता (sovereignty) पर सीधा हमला बताया और कहा कि किसी भी विदेशी सैन्य उपस्थिति को कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा
  2. क्षेत्रीय शक्तियाँ: चीन, रूस और ईरान: इन देशों ने क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को लेकर गंभीर चिंताएँ जताईं। उनका कहना है कि अफगानिस्तान में फिर से अमेरिकी सैन्य अड्डा स्थापित करना पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर सकता है
  3. भारत: भारत ने भी इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। भारत का मानना है कि किसी भी बाहरी हस्तक्षेप से अफगानिस्तान में पुनः अस्थिरता और आतंकवाद बढ़ सकता है।

 

निष्कर्ष:

भारत भी अफगानिस्तान की संप्रभुता बनाए रखने और क्षेत्र में स्थिरता कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वह किसी भी बाहरी सैन्य हस्तक्षेप का विरोध करके अफगानिस्तान में पुनः अस्थिरता और संघर्ष से बचने का प्रयास कर रहा है, साथ ही क्षेत्रीय सहयोग और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की दिशा में काम कर रहा है।

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