सबका बीमा सबकी रक्षा बिल 2025

हाल ही में सरकार ने संसद में सबका बीमा सबकी रक्षा (बीमा कानून संशोधन) विधेयक, 2025 पेश किया है। यह पहल देश में बीमा व्यवस्था को अधिक व्यापक और सुलभ बनाने की दिशा में अहम मानी जा रही है। विधेयक का उद्देश्य बीमा क्षेत्र में सुधारों को तेज करना और हर नागरिक तक सुरक्षा का दायरा पहुंचाना है। इसमें उदारीकरण और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन पर जोर दिया गया है। सरकार की मंशा है कि वर्ष 2047 तक सार्वभौमिक बीमा कवरेज का लक्ष्य हासिल किया जाए।

Sabka Bima Sabki Raksha Bill 2025

भारत में बीमा कानून सुधारों की आवश्यकता

 

  • बीमा कवरेज का सीमित दायरा: भारत जैसे बड़े देश में बीमा की पहुंच अभी भी कमजोर बनी हुई है। वित्त वर्ष 2024 में बीमा क्षेत्र का आकार सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 3.7 प्रतिशत तक सीमित रहा। इसका सीधा अर्थ है कि बड़ी आबादी आर्थिक जोखिमों से पर्याप्त रूप से सुरक्षित नहीं है। प्राकृतिक आपदा, बीमारी या आय में अचानक गिरावट जैसी स्थितियों में परिवारों पर इसका गहरा असर पड़ता है। कम बीमा सुरक्षा घरेलू स्थिरता को कमजोर बनाती है।
  • जीवन और गैर-जीवन बीमा में असंतुलन: देश के बीमा बाजार में जीवन बीमा का प्रभुत्व साफ दिखाई देता है। जीवन बीमा प्रीमियम का हिस्सा लगभग 2.8 प्रतिशत रहा, जबकि गैर-जीवन बीमा 1 प्रतिशत से भी कम पर रहा। इसका परिणाम यह है कि स्वास्थ्य, कृषि, वाहन और आपदा जैसे अहम क्षेत्रों में जोखिम पर्याप्त रूप से कवर नहीं हो पाते। यह कमी किसानों, छोटे कारोबारियों और निम्न आय वर्ग के लिए बड़ी चुनौती बन जाती है।
  • पुरानी सार्वजनिक संस्थाओं का वर्चस्व: बीमा क्षेत्र में अब भी कुछ चुनिंदा बड़ी संस्थाओं का दबदबा बना हुआ है। एलआईसी के सूचीबद्ध होने के बाद भी सरकार की हिस्सेदारी काफी अधिक है। इस स्थिति में प्रतिस्पर्धा सीमित रहती है। नए उत्पादों, बेहतर सेवाओं और आधुनिक बीमा समाधानों के विकास में गति धीमी पड़ती है। 
  • ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में पहुंच की कमी: बीमा सेवाओं का वितरण सभी राज्यों और जिलों में समान नहीं है। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में बीमा पहुंच बहुत कमजोर है। वहां बीमा उत्पादों की लागत अधिक और उपलब्धता कम रहती है। इस असमानता के कारण बड़ी आबादी बीमा सुरक्षा से बाहर रह जाती है।

 

सबका बीमा सबकी रक्षा विधेयक 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • कानूनी ढांचे में व्यापक संशोधन: यह विधेयक बीमा क्षेत्र के पुराने कानूनों को नई नीतिगत सोच के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। इसके तहत बीमा अधिनियम 1938, भारतीय जीवन बीमा निगम अधिनियम 1956 और आईआरडीएआई अधिनियम 1999 में बदलाव प्रस्तावित हैं। इन संशोधनों से लाइसेंसिंग, संचालन और निगरानी से जुड़े नियमों को आधुनिक स्वरूप मिलेगा। 
  • विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव: विधेयक में बीमा कंपनियों में विदेशी हिस्सेदारी की अधिकतम सीमा को 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत करने का प्रावधान किया गया है। इसका अर्थ है कि तय शर्तों के तहत विदेशी निवेशक पूरी तरह स्वामित्व वाली बीमा कंपनियां स्थापित कर सकेंगे। 
  • FDI उदारीकरण: सरकार के अनुसार इस बदलाव से बीमा उद्योग में पूंजी की उपलब्धता बढ़ेगी। प्रतिस्पर्धा मजबूत होगी और बीमा सेवाएं अधिक लोगों तक पहुंचेंगी। साथ ही, नेट ओन्ड फंड की अनिवार्य सीमा को पहले के 5,000 करोड़ रुपये से घटाकर 1,000 करोड़ रुपये किया गया है। इससे नए खिलाड़ियों के लिए बाजार में प्रवेश आसान होगा।
  • नियामकीय सुरक्षा और IRDAI की भूमिका: विधेयक नियामक संस्था IRDAI को अधिक स्पष्ट और मजबूत अधिकार देता है। अब यह प्राधिकरण स्वामित्व से जुड़ी शर्तें, प्रबंधन की योग्यता और संचालन मानकों को सख्ती से तय कर सकेगा। इसके लिए इक्विटी हस्तांतरण के लिए नियामकीय मंजूरी की सीमा 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत कर दी गई है। साथ ही, पॉलिसीधारकों की सुरक्षा से जुड़े कदम उठाने का अधिकार भी मजबूत किया गया है।
  • LIC से जुड़े विशेष प्रावधान: इस विधेयक में भारतीय जीवन बीमा निगम के लिए अलग से प्रावधान शामिल किए गए हैं। सरकार की हिस्सेदारी से जुड़े नियमों में बदलाव का रास्ता खोला गया है। उद्देश्य यह है कि एलआईसी के प्रशासन और पूंजी संरचना को अन्य बीमा कंपनियों के समान मानकों पर लाया जा सके।
  • पूंजी और सॉल्वेंसी से जुड़े नियम: विधेयक में बीमा कंपनियों की वित्तीय मजबूती पर खास जोर दिया गया है। सभी बीमाकर्ताओं को तय पूंजी और सॉल्वेंसी मानकों का पालन करना होगा। नए विदेशी स्वामित्व वाले खिलाड़ियों के लिए नियामक को पूंजी नियमों में संतुलन बनाने की छूट दी गई है। 
  • प्रबंधन, पारदर्शिता और प्रवेश प्रक्रिया: विधेयक बोर्ड की संरचना, जोखिम प्रबंधन और लाभकारी स्वामित्व के खुलासे को अनिवार्य बनाता है। साथ ही, पॉलिसीधारकों की सुरक्षा के लिए एक विशेष फंड की स्थापना का प्रावधान है। नए लाइसेंस की प्रक्रिया को सरल बनाया गया है, ताकि बीमा बाजार में प्रतिस्पर्धा और नवाचार को बढ़ावा मिल सके।

 

विधेयक से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ

  • संयुक्त बीमा लाइसेंस का अभाव: इस विधेयक की सबसे बड़ी कमी यह मानी जा रही है कि इसमें संयुक्त बीमा लाइसेंस की व्यवस्था नहीं की गई है। यदि एक ही कंपनी को जीवन, स्वास्थ्य और सामान्य बीमा प्रदान करने की अनुमति होती, तो बीमा सेवाएं अधिक सरल और किफायती बन सकती थीं। वर्तमान व्यवस्था अब भी 1938 के कानून पर आधारित है, जिसमें हर श्रेणी के लिए अलग इकाई जरूरी होती है। इससे कंपनियों को अलग-अलग ढांचे बनाए रखने पड़ते हैं। इस कारण लागत बढ़ती है और जोखिम का बेहतर बंटवारा नहीं हो पाता। 
  • नए बीमाकर्ताओं के लिए ऊंची पूंजी शर्त: विधेयक में न्यूनतम चुकता पूंजी की सीमा में कोई बदलाव नहीं किया गया है। आज भी सामान्य बीमा के लिए 100 करोड़ रुपये और जीवन बीमा के लिए 200 करोड़ रुपये की अनिवार्यता है। ये शर्तें बहुत पहले तय की गई थीं, जब बाजार की परिस्थितियां अलग थीं। वर्तमान समय में इतनी बड़ी राशि जुटा पाना छोटे और नवाचार-आधारित उद्यमों के लिए मुश्किल होता है। नतीजतन बाजार में बड़े समूहों का दबदबा बना रहता है। इससे प्रतिस्पर्धा घटती है और उपभोक्ताओं के पास सीमित विकल्प रह जाते हैं।
  • वितरण और एजेंसी व्यवस्था में जकड़न: बीमा वितरण प्रणाली में लचीलापन लाने के लिए इस विधेयक में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। वर्तमान नियमों के तहत एक एजेंट केवल एक जीवन बीमा और एक गैर-जीवन बीमा कंपनी के उत्पाद ही बेच सकता है। इससे एजेंट और ग्राहक दोनों की स्वतंत्रता सीमित होती है। कई विकसित देशों में एक एजेंट कई कंपनियों के उत्पाद बेच सकता है। यहां ऐसी व्यवस्था की अनुमति न मिलने से बाजार की पहुंच और बिक्री क्षमता प्रभावित होती है। 
  • कैप्टिव बीमा और कॉरपोरेट जोखिम प्रबंधन की अनदेखी: विधेयक में बड़ी कंपनियों को अपनी खुद की कैप्टिव बीमा इकाई बनाने की छूट नहीं दी गई है। कैप्टिव बीमा मॉडल से कंपनियां अपने जोखिम खुद प्रबंधित कर सकती हैं। अमेरिका और जापान जैसे देशों में यह व्यवस्था सफलतापूर्वक लागू है। भारत में इसकी अनुपस्थिति से कॉरपोरेट नवाचार सीमित होता है। कंपनियों को बाहरी बीमाकर्ताओं पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता है। इससे बीमा क्षेत्र का विस्तार खुदरा स्तर से आगे नहीं बढ़ पाता।

 

निष्कर्ष:

इन सभी बिंदुओं से स्पष्ट है कि विधेयक में कई सकारात्मक कदमों के बावजूद कुछ संरचनात्मक सुधारों की कमी रह गई है। यदि इन पहलुओं पर ध्यान दिया जाता, तो बीमा क्षेत्र अधिक प्रतिस्पर्धी, व्यापक और आधुनिक बन सकता था।

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