अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने घोषणा की है कि वे 6 लाख चीनी छात्रों को अमेरिका आने की अनुमति देंगे। ट्रंप का कहना है कि अमेरिका के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि चीनी छात्र वहां आकर शिक्षा प्राप्त करें। उन्होंने चीन के साथ रिश्तों को लेकर सकारात्मक रुख अपनाते हुए यह भी बताया कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उन्हें बीजिंग आने का निमंत्रण दिया है।
चीन के प्रति बदला रवैया:
अब ट्रंप का यह फैसला उनके पहले के रुख से बिल्कुल अलग है। साल की शुरुआत में उन्होंने साल की शुरुआत में अमेरिका ने चीन से आने वाले सामानों पर भारी टैरिफ लगाया, जो बढ़ते-बढ़ते 145% तक पहुंच गया। इसके जवाब में चीन ने भी 125% टैरिफ की घोषणा की। हालांकि मई में दोनों देशों ने अतिरिक्त टैरिफ पर रोक लगाने का फैसला किया, लेकिन इसके बाद भी अमेरिका कई बार नए टैरिफ लगाने की चेतावनी देता रहा। खासकर चीनी मैग्नेट पर 200% टैरिफ का प्रस्ताव दिया गया, यह कहते हुए कि वैश्विक स्तर पर इस उत्पाद की सप्लाई पर चीन की मोनोपोली है, लेकिन अब उनका यह कदम चीन के प्रति नरमी और सहयोग की दिशा में इशारा करता है।
चीन को राहत, लेकिन टैरिफ का दबाव कायम:
अमेरिकी राष्ट्रपति ने 6 लाख चीनी छात्रों को अमेरिका आने और पढ़ाई करने की अनुमति दी, लेकिन अपनी सख्त छवि बनाए रखने के लिए उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि बीजिंग को वाशिंगटन को आवश्यक संसाधन मुहैया कराने होंगे, अन्यथा उसे 200% टैरिफ का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।
‘टैरिफ वॉर‘ के बीच नई चाल:
यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक खींचतान चरम पर है।
- अमेरिका को चीन से दुर्लभ धातुएँ (Rare Earth Materials) चाहिए, जो रक्षा और हाई-टेक उद्योगों के लिए अनिवार्य हैं।
- दूसरी ओर, चीन अमेरिकी एडवांस्ड AI चिप्स पर निर्भर है, जिनके बिना उसकी टेक्नोलॉजी और विनिर्माण क्षमता अधूरी रह जाएगी।
अमेरिका में चीनी छात्रों की मौजूदा स्थिति:
वर्तमान में अमेरिका की यूनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में लगभग 2.7 लाख चीनी छात्र पढ़ाई कर रहे हैं। ट्रंप का नया निर्णय इस संख्या को दोगुने से भी अधिक कर सकता है, जिससे शिक्षा और शोध के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ने की संभावना है।
ट्रंप का चीन पर नरमी का कारण?
आंकड़े बताते हैं कि रूस से चीन कहीं अधिक तेल खरीद रहा है। इस लिहाज से देखें तो रूस के लिए भारत के बजाय चीन ही असली “लाइफलाइन” साबित हो रहा है। यही वजह है कि भारत पर ट्रंप की सख्ती चौंकाती तो है, लेकिन इसके पीछे ठोस कारण भी हैं।
- चीन की रणनीतिक अहमियत: चीन दुर्लभ मृदा खनिजों (Rare Earth Minerals) के खनन और प्रोसेसिंग में अग्रणी है, जिन पर कई अमेरिकी उद्योग गहराई से निर्भर हैं। ट्रंप के लिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि अमेरिका की मैन्युफैक्चरिंग सप्लाई में कोई रुकावट न आए।
- व्यापारिक रियायतें: अमेरिका ने हाल ही में चीन को राहत देते हुए सेमीकंडक्टर निर्यात प्रतिबंधों में आंशिक ढील दी है। यह कदम तनाव कम करने की दिशा में उठाया गया है, क्योंकि सेमीकंडक्टर पर प्रतिबंध हटाना चीन की प्रमुख मांग रही है।
- गहराई से जुड़ा व्यापार: अमेरिका और चीन दोनों ही विशाल अर्थव्यवस्थाएँ हैं और एक-दूसरे पर बड़े पैमाने पर निर्भर हैं। अमेरिकी कंपनियाँ चीन से कच्चा माल खरीदती हैं, ऐपल, वॉलमार्ट और GM जैसी दिग्गज कंपनियाँ भी इसी पर टिकी हैं। चीन पर अतिरिक्त दबाव डालने से महंगाई बढ़ सकती है, जिसका असर अमेरिकी उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा।
- मैन्युफैक्चरिंग की मजबूरी: चीन मैन्युफैक्चरिंग में अग्रणी है। विशाल आबादी और कम लागत के चलते वह सस्ते दाम पर उत्पाद तैयार करता है। अमेरिका इन्हीं सस्ते प्रोडक्ट्स पर निर्भर है। ऐसे में ट्रंप का कोई भी गलत कदम सप्लाई चेन को तोड़ सकता है और अमेरिकी कंपनियों के चीन में निवेश को भी जोखिम में डाल सकता है।

रेयर अर्थ एलिमेंट्स पर चीन की सख्ती से अमेरिका को बड़ा झटका
चीन ने हाल ही में प्रमुख रेयर अर्थ एलिमेंट्स (REE) के निर्यात पर कड़े नियम लागू कर दिए थे। इनका इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक मशीनों, ऑटोमोबाइल, रक्षा उद्योग, फाइटर जेट और पनडुब्बी बनाने तक में होता है।
इन सातों में से अमेरिका के लिए सबसे अहम है सैमरियम। कोबाल्ट के साथ मिलाकर यह मजबूत मैग्नेट बनाने में काम आता है, जिसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र करता है। चीन इसे अमेरिकी केमिकल कंपनियों को निर्यात करता था, जो इसे मैग्नेट बनाने वाली कंपनियों तक पहुंचाती थीं।
अमेरिकी रक्षा उत्पादन पर असर
सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज की रिपोर्ट बताती है कि:
- एक F-35 फाइटर जेट बनाने में लगभग 23 किलो सैमरियम की जरूरत पड़ती है।
- एक DDG-51 डिस्ट्रॉयर जहाज में करीब 2,300 किलो REE का इस्तेमाल होता है।
- वहीं, एक वर्जीनिया क्लास पनडुब्बी बनाने में करीब 4,173 किलो REE की आवश्यकता होती है।
चीन का दुर्लभ धातुओं पर नियंत्रण
चीन दुर्लभ धातुओं (Rare Earth Elements) के खनन और रिफाइनिंग पर लगभग एकाधिकार रखता है, जिससे वह वैश्विक सप्लाई चेन में प्रमुख खिलाड़ी बन गया है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, चीन लगभग 61% दुर्लभ धातु उत्पादन और उससे भी बड़ी हिस्सेदारी 92% रिफाइनिंग प्रक्रिया में करता है। इससे बीजिंग को बड़ा दबदबा मिलता है, क्योंकि वह तय कर सकता है कि किन कंपनियों और देशों को यह महत्वपूर्ण आपूर्ति मिलेगी।
अमेरिका में आलोचना भी तेज़:
अमेरिकी राष्ट्रपति के हालिया फैसले को लेकर देश में कड़ा विरोध सामने आ रहा है। विशेषकर रिपब्लिकन पार्टी के कट्टरपंथी धड़े ने इसे “America First” एजेंडा से विचलन करार दिया है। उनका मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर विदेशी छात्रों को अनुमति देना न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिम है बल्कि यह अमेरिकी युवाओं के शैक्षिक अवसरों को भी सीधे प्रभावित करेगा।
आलोचनाओं का केंद्र
- रिपब्लिकन धड़े का आरोप है कि विदेशी छात्रों की आड़ में जासूसी और बौद्धिक संपदा की चोरी जैसी गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है।
- उनका कहना है कि यह कदम आव्रजन नीति को कमजोर करता है और “अमेरिका फर्स्ट” दृष्टिकोण से पूरी तरह मेल नहीं खाता।
- कई नेताओं ने आशंका जताई कि इससे अमेरिकी छात्रों की नौकरियों और सीटों पर सीधा असर पड़ेगा और शिक्षा प्रणाली पर दबाव बढ़ेगा।
अमेरिका फर्स्ट नीति की नई दिशा:
नई घोषणा यह दिखाती है कि अमेरिका अपनी नीतियों में लगातार सख्ती और कट्टरपन की ओर बढ़ रहा है। पहले घोषित वीज़ा नीति से अलग यह कदम न केवल शिक्षा और शोध जैसे क्षेत्रों को प्रभावित करेगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बुनियाद पर भी चोट करेगा।
यह रवैया इस बात को स्पष्ट करता है कि अमेरिका वैश्विक साझेदारी के बजाय अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखने के रास्ते पर चल रहा है। आलोचकों का मानना है कि इस तरह की नीतियाँ पारदर्शिता और सहयोग के बजाय अविश्वास और टकराव को जन्म देंगी।
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