द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने केवल एक वैश्विक शक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सुरक्षा प्रदाता राष्ट्र के रूप में भी खुद को स्थापित किया। शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ को काउंटर करने के लिए अमेरिका ने रणनीतिक रूप से कई देशों में अपने सैन्य ठिकाने बनाए। इसके पीछे दो मुख्य उद्देश्य थे — सहयोगी देशों की सुरक्षा सुनिश्चित करना, और जरूरत पड़ने पर किसी भी क्षेत्र में फौरन सैन्य हस्तक्षेप करना।
🔹आज की वैश्विक चुनौतियों
जैसे वैश्विक आतंकवाद (global terrorism), चीन का बढ़ता प्रभुत्व (rising Chinese dominance), और मध्य पूर्व की अस्थिरता (Middle East instability) — को देखते हुए अमेरिका ने अपने पुराने सैन्य ठिकानों को बनाए रखा है और कुछ नए क्षेत्रों में भी अपनी सैन्य उपस्थिति दर्ज कराई है। अमेरिकी सैन्य बेस उसकी विदेश नीति, आर्थिक हितों और भू-राजनीतिक रणनीति (geo-political strategy) के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय (Pentagon) के अनुसार, अमेरिका वर्तमान में कम से कम 51 देशों में 128 स्थायी सैन्य ठिकानों का संचालन कर रहा है। इनमें से कई बेस ऐसे हैं जो पिछले 15 वर्षों से अधिक समय से सक्रिय हैं।
इसके अलावा, कई ऐसे अस्थायी या अर्ध-स्थायी बेस भी हैं, जहां अमेरिकी रक्षा बलों की नियमित पहुंच बनी हुई है।
🔹मध्य पूर्व: अमेरिकी रणनीति का केंद्र
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अगर बात सबसे महत्वपूर्ण ठिकानों की करें, तो अमेरिका का सबसे अधिक ध्यान मध्य पूर्व (Middle East) पर केंद्रित रहा है। यहां दो कारण प्रमुख हैं — क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखना और इस्लामिक चरमपंथ से निपटना। खासकर सीरिया और इराक जैसे देशों में आतंकवाद से मुकाबले के लिए अमेरिका ने अपनी सैन्य उपस्थिति मजबूत की है।
वर्तमान में मध्य पूर्व के देशों — कतर, कुवैत, यूएई, सऊदी अरब, जॉर्डन, इराक, सीरिया, तुर्की, मिस्र और बहरीन — में अमेरिका के कई सक्रिय सैन्य अड्डे हैं। इन ठिकानों पर लगभग 40,000 से 45,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं, जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
आइए जानते है मध्य पूर्व में कहां और कितनी हैं अमेरिकी सेनाएं-
बहरीन: अमेरिकी नौसेना की अग्रिम पंक्ति
बहरीन में अमेरिका का नेवल कमांड और फिफ्थ फ्लीट (Fifth Fleet) का मुख्यालय स्थित है। यह बेस 1948 से सक्रिय है, जब इसे ब्रिटेन की रॉयल नेवी संचालित करती थी। यहां एक गहरे समुद्र का बंदरगाह भी है, जहां विमानवाहक पोतों (aircraft carriers) की भी आवाजाही संभव है। साथ ही यहां एंटी-माइन जहाज, सपोर्ट शिप्स और कोस्ट गार्ड की यूनिट्स भी तैनात हैं। यह अड्डा अमेरिका की नौसैनिक रणनीति का प्रमुख केंद्र है।
कतर: सबसे बड़ा एयरबेस – अल-उदीद
कतर में स्थित Al Udeid Air Base मध्य पूर्व में अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है। यह बेस अमेरिकी सेंट्रल कमांड (CENTCOM) की फॉरवर्ड कमान के रूप में कार्य करता है और यहां अमेरिकी वायुसेना और स्पेशल फोर्सेज की विशेष तैनाती है। इस बेस से 379th Air Expeditionary Wing और रोटेटिंग कॉम्बैट एयरक्राफ्ट संचालित होते हैं। यह बेस अमेरिका की हवाई रणनीति का गढ़ है।
इराक और सीरिया: आतंकवाद के खिलाफ फ्रंटलाइन
इराक में अमेरिका के कई सक्रिय सैन्य अड्डे हैं, जिनमें अल-अनबर प्रांत का Al Asad Air Base और इरबिल में स्थित Al Harir Air Base प्रमुख हैं। यहां करीब 2,500 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं जो ISIS के खिलाफ गठबंधन सेना का हिस्सा हैं। 2020 में ईरान द्वारा कासिम सुलेमानी की मौत के जवाब में अल-असद बेस पर मिसाइल हमले भी किए गए थे।
सीरिया में अमेरिका की मौजूदगी का केंद्र Al-Tanf Garrison है, जो इराक और जॉर्डन की सीमा के निकट स्थित है। यह बेस भी ISIS के खिलाफ अमेरिकी अभियानों में अहम भूमिका निभा रहा है।
कुवैत और यूएई: जमीनी और हवाई सुरक्षा का संतुलन
कुवैत में अमेरिका के दो प्रमुख अड्डे हैं। पहला, Ali Al-Salem Air Base, जो इराकी सीमा से महज 20 मील दूर स्थित है, जहां 386th Air Expeditionary Wing के एयरमैन तैनात हैं। दूसरा, Camp Arifjan, जो अमेरिकी सेना (US Army) के सेंट्रल कमांड का अग्रिम मुख्यालय है और जमीनी अभियानों के लिए रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संयुक्त अरब अमीरात (UAE) में स्थित Al Dhafra Air Base से अमेरिका के F-22 रैप्टर फाइटर जेट, MQ-9 रीपर ड्रोन और निगरानी विमान संचालित किए जाते हैं। यहीं पर गल्फ एयर वॉरफेयर सेंटर भी स्थित है, जो एयर और मिसाइल डिफेंस से जुड़ा प्रमुख प्रशिक्षण केंद्र है।
अमेरिकी सैन्य उपस्थिति: सहमति या रणनीतिक दबाव?
यह सवाल लाजिमी है कि जब आमतौर पर देश विदेशी सेनाओं को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं, तो अमेरिका के मामले में यह अपवाद क्यों बन जाता है? दरअसल, अमेरिका ने अपनी सैन्य ताकत को केवल सुरक्षा के साधन के रूप में नहीं, बल्कि एक रणनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। “स्मूद ऑपरेशन”, आतंकवाद-विरोधी लड़ाई, और रक्षा सहयोग जैसे कारणों की आड़ में अमेरिका ने दुनिया के कई देशों में सैन्य ठिकाने बना लिए।
तकनीकी रूप से देखा जाए तो कोई भी देश किसी विदेशी ताकत को अपने यहां बेस बनाने की अनुमति दे सकता है, लेकिन ज्यादातर देश ऐसा करने से हिचकिचाते हैं। उन्हें डर रहता है कि विदेशी फौज कहीं देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने लगे या फिर जासूसी जैसे कार्य न करे। यही वजह है कि अमेरिका जैसा विशेषाधिकार सिर्फ उसी को हासिल है, क्योंकि वह इसे बड़ी चतुराई से “सुरक्षा की साझेदारी” की शक्ल में पेश करता है।
🔹क्या कभी अमेरिका को अपने सैन्य ठिकानों से जाना पड़ा?
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अमेरिका की यह रणनीति हर जगह सफल नहीं रही। कुछ देशों में उसे भारी विरोध और जनदबाव के कारण अपने सैन्य अड्डे समेटने पड़े। फिलीपींस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह देश 19वीं सदी के अंत से लेकर 20वीं सदी की शुरुआत तक अमेरिकी नियंत्रण में रहा। यहां अमेरिका ने कई बड़े सैन्य बेस स्थापित किए, जो पूरे एशिया में उसकी सैन्य रणनीति की रीढ़ थे।
लेकिन 1980 के दशक में जब फिलीपींस में लोकतंत्र की मांग तेज होने लगी, तो इन अमेरिकी अड्डों को देश की संप्रभुता के लिए खतरा माना जाने लगा। आरोप लगे कि अमेरिका इन ठिकानों का उपयोग न केवल सैन्य कार्यों के लिए कर रहा था, बल्कि वह फिलीपींस की आंतरिक राजनीति पर भी नजर रख रहा था। अमेरिकी सैनिकों पर बलात्कार, हत्या और हिंसा जैसे गंभीर आरोप लगे, जिससे स्थानीय जनता में गुस्सा और असंतोष गहराता गया।
विरोध इतना बढ़ा कि 1991 में फिलीपींस की संसद ने मतदान के ज़रिए अमेरिका से अपने सैन्य अड्डे बंद करने को कह दिया। अमेरिकी झंडा उतारा गया, सैनिक रवाना हुए और देश को संप्रभुता की नई अनुभूति मिली। फिलीपींस के बाद कई अन्य देशों में भी अमेरिका को जासूसी, मानवाधिकार उल्लंघन और राजनीतिक विरोध के कारण अपने सैन्य ठिकानों को बंद करना पड़ा।
अफ़ग़ानिस्तान इसका हालिया और और भी गंभीर उदाहरण है। 2001 में 9/11 हमलों के बाद अमेरिका ने “War on Terror” के तहत अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप शुरू किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने बगराम एयरबेस समेत कई ठिकानों पर अपनी सेना तैनात की। 20 वर्षों तक अमेरिका ने यहां अपनी सैन्य और राजनीतिक उपस्थिति बनाए रखी।
हालांकि, समय के साथ अमेरिकी उपस्थिति को लेकर अफगान जनता और वहां की सरकारों में असंतोष बढ़ा। ड्रोन हमलों, नागरिक मौतों और भ्रष्ट राजनीतिक गठबंधन के कारण अमेरिका की नीति की आलोचना होने लगी। अंततः 15 अगस्त 2021 को तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया, और अमेरिकी सेना ने जल्दबाज़ी में वापसी की। बगराम एयरबेस को 2 जुलाई 2021 को चुपचाप खाली कर दिया गया, और 30 अगस्त 2021 को आखिरी अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से रवाना हुए।
यह वापसी अमेरिका के लिए न केवल सैन्य विफलता थी, बल्कि यह उसकी विदेश नीति पर उठता बड़ा प्रश्न भी था — क्या कोई देश वास्तव में स्थायी रूप से किसी और देश में टिक सकता है, बिना स्थानीय समर्थन खोए?