क्यों दूर की कौड़ी है इसराइल के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों का एकजुट होना?

साल 1974 के फ़रवरी महीने में पाकिस्तान के लाहौर शहर में इस्लामिक देशों के बड़े संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी OIC का दूसरे समिट चल रहा था. इस समिट में अपने संबोधन देने मंच पर आए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो…उन्होंने मंच से कहा –

…’हम एक ग़रीब मुल्क है, सीमित संसाधन हैं..हमारे पास इतना धन नहीं है कि हम इकनॉमिक इंस्टिट्यूशन बनाने के लिए कोई योगदान दे लेकिन अल्लाह को साक्षी मानकर मैं सभी को आश्वस्त कर सकता हूं कि हम इस्लाम के लिए ख़ून का हर क़तरा देने से पीछे नहीं हटेंगे…हमारे सैनिक, हमारी आर्मी भविष्य में जहां भी ज़रूरत पड़ेगी हम मदद के लिए खड़े मिलेंगे…’हालांकि तब तक पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग ज़रूर हो गया था लेकिन भुट्टो की एकजुटता की उम्मीद बनी रही…लेकिन शायद ये ऐसा सपना था जिसके भविष्य में साकार होना लिखा नहीं गया था….

अब एक बार फिर दोस्तों, ईरान-इसराइल की जंग के बीच ये एकजुटता की बातें फिर से जोर पकड़ रही है, पाकिस्तान ने हाल में अपनी चाहत जताई कि इस्लामिक देश इसराइल के ख़िलाफ़ एकजुटता दिखाएं, हाथ मिलाएं लेकिन ऐसा होना अभी भी दूर की कौड़ी ही लग रहा है. जैसा कि आप जानते हैं कि ईरान-इसरायल के बीच छिड़ी जंग अब 8वें दिन में एंट्री ले चुकी है और लगातार दिन बीतने के साथ ही दोनों देशों के बीच हालात बिगड़ते जा रहे हैं..दोनों देशों के बीच लगातार हमले और जवाबी कार्रवाई की जा रही है जहां मिसाइलें और ड्रोन बरसाए जा रहे हैं.

8 दिन की इस लड़ाई में अब तक इसरायल के 24 लोग मारे गए हैं. वहीं 600 से ज्यादा लोग घायल हैं. उधर वॉशिंगटन स्थित एक ह्यूमन राइट्स ग्रुप का दावा है कि ईरान में मौत का आंकड़ा अब 639 हो चुका है और 1329 लोग घायल हैं. वहीं कुछ लोग दोनों देशों के टकराव को इस्लाम के ख़िलाफ़ युद्ध के रूप में भी देख रहे हैं.

ऐसे में ईरान और इसरायल की इस जंग पर जहां दुनिया भर की नजरें टिकी हैं…क्या होगा अमेरिका का रुख, रूस क्यों चुप है, ईरान का अगला कदम क्या होगा वगैरह-वगैरह…और इन सबके बीच एक चर्चा ये भी हो रही है कि इस जंग के बीच आने वाले दिनों में इस्लामिक देश एकजुट हो पाएंगे और पाकिस्तान को क्यों लगता है कि इसराइल के ख़िलाफ़ दुनिया भर के इस्लामिक देशों को एकजुट होना चाहिए.


दोस्तों, चाहे जंग के हालातों के बीच चाहे कितनी ही एकजुटता की बातें हों लेकिन वर्तमान हालात यह है कि इस्लामिक देश कई आपसी संघर्षों और मतभेदों से जूझ रहे हैं. सबसे पहले अगर हम बात करें सऊदी अरब और ईरान की तो इन दोनों देशों की प्रतिद्वंद्विता अभी ख़त्म नहीं हुई है…इन दोनों के बीच प्रतिद्वंद्विता सुन्नी बनाम शिया से लेकर सऊदी अरब की राजशाही बनाम ईरान की इस्लामिक क्रांति भी रही है.

वहीं इराक़ पर जब अमेरिका ने हमला किया था और सद्दाम हुसैन की फांसी की सजा हुई थी तब ईरान अमेरिका के ख़िलाफ़ नहीं था…और इसके बाद जिस साल ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई उसी साल मिस्र ने इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किए…

वहीं जॉर्डन ने भी 1994 में इसराइल को मान्यता दी. इसके बाद बीते सालों में 2020 में यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध बनाए. उधर तुर्की के इसराइल से राजनयिक संबंध 1949 से हैं और यहां तक कि इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश ही तुर्की था…ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि क्या इस जंग के मौके पर इस्लामिक देश इसराइल के ख़िलाफ़ अपने सारे मतभेद, तमाम विरोधाभास और गुजरा हुआ इतिहास भूल जाएंगे? आइए कुछ पॉइंट में समझने की कोशिश करते हैं.

मुस्लिम लीडरशिप की छवि:

दोस्तों, सभी मुस्लिम देशों में लीडरशिप को लेकर सालों से संघर्ष चलता आ रहा है. जैसे कि सऊदी अरब और ईरान अपने आप को अन्य सभी मुस्लिम देशों का लीडर मानते हैं..और इन दोनों में अनबन खत्म नहीं हुई है. वहीं कई ऐसे मुस्लिम देश भी हैं जो कि इजरायल के करीबी हैं…वहीं अमेरिका इजरायल का समर्थक है..ऐसे में कई मुस्लिम देश यह नहीं चाहते कि उनकी अमेरिका से दूरी बने.

आपको पता होगा कि ईरान इस्लामिक क्रांति से पहले पश्चिम का सपोर्टर था, अमेरिका से उसकी करीबी थी लेकिन ईरान में जब इस्लामिक क्रांति हुई उसी साल मिस्र ने इजरायल को राष्ट्र की मान्यता देने और राजनयिक संबंध स्थापित करने का फैसला कर लिया…इसके बाद जॉर्डन ने भी इजरायल को राष्ट्र की मान्यता दे दी और फिर एक-एक कर कई देशों ने इजरायल से राजनयिक संबंध शुरू किए…ऐसे में विदेश नीति को लेकर ये मुस्लिम देश अचानक से इतना बड़ा परिवर्तन या फैसला नहीं ले सकते हैं.

अमेरिका से रिश्ते बिगड़ने की संभावना:

वहीं दोस्तों मुस्लिम देशों की ईरान को सपोर्ट ना करने की एक सबसे बड़ी वजह अमेरिका है…कई देशों को अमेरिका सपोर्ट करता है और ऐसे में अगर अमेरिका ने सपोर्ट हटा लिया तो अल-कायदा और ISS जैसे संगठन उन देशों पर कब्जा जमा लेंगे जैसे अफगानिस्तान और सीरिया के साथ हुआ..ऐसे में सभी मुस्लिम देश इजराइल के खिलाफ बयान तो दे रहे हैं लेकिन खुलकर समर्थन नहीं कर सकते हैं.

इसके साथ ही इजराइल अमेरिका का करीबी सहयोगी है…वहीं सऊदी अरब, UAE, मिस्र और जॉर्डन जैसे मुस्लिम देश अमेरिका पर सैन्य और आर्थिक रूप से निर्भर हैं..ऐसे में इजराइल के खिलाफ कोई भी खुली कार्रवाई करने से उनके भी अमेरिका के साथ रिश्ते खराब हो सकते हैं.

इसे और अगर थोड़ा वर्तमान के हिसाब से समझें तो अमेरिका इजरायल का खुलकर समर्थन कर रहा है…इजरायल के पास जो भी अमेरिकी हथियार पहुंच रहे हैं वे किसी ना किसी मुस्लिम देश से ही होकर जा रहे हैं…इसके बावजूद जॉर्डन जैसे देश विरोध नहीं कर पा रहे हैं. इसके अलावा एक और उदाहरण देखें तो 1967 के युद्ध से पहले अरब देश इजरायल और फिलिस्तीन के मामले में दखल देते थे…वहीं अब इस युद्ध के बाद इस मामले में केवल ईरान समर्थित कुछ संगठन ही दखलअंदाजी करते हैं.

कमजोर OIC, आर्थिक मजबूरी…!

तो आखिर में कुछ और कारणों पर गौर करते हैं जैसे कि ओआईसी और अरब लीग जैसे संगठन भी मुस्लिम देशों के एकजुट करने में कामयाब नहीं रहे हैं जिसके चलते ईरान अलग-थलग दिखाई दे रहा है. माना जा रहा है कि अगर अमेरिका से ईरान के और मतभेद बढ़े तो अमेरिका और इजरायल एक साथ ईरान पर हमला करेंगे और फिर उसके लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी. इसके साथ ही शिया और सुन्नी मतभेद के चलते इजरायल के हमले को इस्लाम के खिलाफ हमला भी नहीं साबित किया जा सकता जिसकी वजह से भी इस्लामिक देशों का इजरायल के खिलाफ खड़ा होना नामुमकिन सा लगता है. इसके अलावा यमन, सीरिया और लीबिया जैसे कई मुस्लिम देश अपने ही देश में संघर्ष से जूझ रहे हैं…जहां ज्यादातर मुस्लिम देशों में सरकारों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं जिसके चलते भी इनके पास इजराइल के खिलाफ एकजुट होने की काबिलियत नहीं दिखाई देती है.

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