जगन्नाथ रथ यात्रा :-धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

ओडिशा के पुरी शहर में आयोजित होने वाली जगन्नाथ यात्रा भारत की सबसे प्राचीन और भव्य धार्मिक यात्राओं में से एक है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना, समावेशिता और लोक परंपराओं का जीवंत प्रतीक है।

वर्ष 2025 में यह यात्रा 27 जून से शुरू होकर 5 जुलाई तक चलेगी जाएगी। इस बार आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि 27 जून को है. इसी दिन रथ यात्रा की शुरुआत होगी

जगन्नाथ रथ यात्रा:

  • पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा भारत की उन गिनी-चुनी परंपराओं में से है, जो न केवल हजारों वर्षों पुरानी हैं, बल्कि आज भी लाखों लोगों के हृदय को जोड़ने का काम करती हैं। यह यात्रा ओडिशा के पुरी नगर में हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होती है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा तीन भव्य रथों पर सवार होकर श्रीमंदिर से गुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें राजा से लेकर आमजन तक, सब समान रूप से भागीदारी निभाते हैं।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

    पुरी स्थित श्रीजगन्नाथ मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में गंग वंश के प्रसिद्ध राजा अनंतवर्मन चोडगंगदेव द्वारा कराया गया था। हालाँकि, रथ यात्रा की परंपरा इससे भी पहले की मानी जाती है। पुराणों के अनुसार, इस यात्रा का उल्लेख स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण और श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों में मिलता है। इसके अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के पश्चात उनका हृदय जल में नष्ट नहीं हुआ और वह दिव्य तत्व नीलमाधवके रूप में सुरक्षित रहा। यही पवित्र तत्व आज भी भगवान जगन्नाथ की काष्ठ मूर्ति में ब्रह्मपदार्थ के रूप में विद्यमान है।

    रथ यात्रा की परंपरा और धार्मिक कथा

    यह यात्रा उस प्रसंग पर आधारित है, जब भगवान जगन्नाथ, अपने भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ अपनी मौसी के घर जाने के लिए नगर भ्रमण पर निकलते हैं। पद्म पुराण के अनुसार, एक बार देवी सुभद्रा ने नगर देखने की इच्छा व्यक्त की, तब भगवान ने दोनों को रथ पर बैठाकर यात्रा करवाई। तभी से यह परंपरा प्रतिवर्ष निभाई जाती है।
    यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि समाज में भक्ति, समानता और सहभागिता की चेतना को जीवित रखती है।

     

    रथों का निर्माण और पहचान:

     

    जगन्नाथ रथ यात्रा के तीन रथ सिर्फ लकड़ी के ढांचे नहीं, बल्कि भक्तिभाव से गढ़े गए चलायमान मंदिर होते हैं। हर वर्ष पुरी के विश्वकर्मा कारीगर बिना किसी नट-बोल्ट के, पारंपरिक औजारों से इन रथों का निर्माण करते हैं

    तीनों रथों की अपनी एक खास पहचान होती है — रंगों की भाषा, ऊँचाई का संदेश और पहियों की संख्या सब कुछ गहराई से प्रतीकात्मक है:

    • नंदीघोष (भगवान जगन्नाथ का रथ): यह सबसे ऊँचा रथ होता है — 45 फीट, 16 विशाल पहिए, और रंग – लाल व पीला। यह रथ गरुड़ के ध्वज से सुसज्जित होता है और भक्तों में इसका स्पर्श करना सबसे बड़ा सौभाग्य माना जाता है।
    • तालध्वज (बलराम का रथ): 44 फीट ऊँचा, 14 पहियों वाला यह रथ लाल और हरे रंग से रंगा होता है। इसका ध्वज हलधर का प्रतीक है — जो शक्ति और स्थिरता का प्रतीक है।
    • दर्पदलन (सुभद्रा का रथ): यह रथ सुभद्रा जी की सौम्यता और रहस्य का प्रतीक है — ऊँचाई 43 फीट, 12 पहिए और रंग लाल व काला। यह रथ पद्मध्वज से सुशोभित होता है और इसे पद्मरथभी कहते हैं।

    रथों को खींचने की परंपरा में शामिल होना केवल शारीरिक प्रयास नहीं, बल्कि अदृश्य पुण्य और ईश्वर से जुड़ाव की यात्रा है। लाखों श्रद्धालु हर वर्ष पुरी पहुँचते हैं — रथ की एक रस्सी पकड़ने के लिए, उसे एक इंच भी आगे खींचने के लिए, क्योंकि उन्हें विश्वास होता है कि इससे मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं।

    इन रथों को पुरी के विश्वकर्मा कारीगरों द्वारा पारंपरिक विधि से बनाया जाता है। रथों को खींचना भक्तों के लिए अत्यंत पुण्यदायक माना जाता है और लाखों श्रद्धालु इस अनुष्ठान में भाग लेने के लिए दूर-दूर से पुरी पहुँचते हैं।

     

    हर आयोजन में छिपा है आध्यात्मिक संकेत

     

    रथ यात्रा केवल एक दिन की परंपरा नहीं, बल्कि नौ दिनों तक चलने वाली ईश्वरीय लीला है, जिसमें हर दिन का अपना महत्व है:

    पांडुका पर्व: रथ यात्रा से ठीक एक दिन पहले पुरी के गजपति राजा स्वयं सोने की झाड़ू लेकर भगवान के रथ की सफाई करते हैं — यह दृश्य दर्शाता है कि राजा हो या रंक, भगवान के सम्मुख सब समान हैं

    गुंडिचा यात्रा: यह तीन किलोमीटर की यात्रा भगवान के मायके यानी मौसी के घर की यात्रा है। इसी मंदिर को गुंडिचा मंदिर कहा जाता है, जहाँ भगवान नौ दिन तक विश्राम करते हैं। यह विश्राम नहीं, भक्तों के लिए साक्षात भगवान का आतिथ्य है।

    सुंदर वापसी: लौटते समय भगवान मौसी माँ के मंदिर में रुकते हैं, जहाँ उन्हें विशेष मिठाई पोड़ा पिठा का भोग लगता है। यह पड़ाव ममता और घर की मिठास का प्रतीक है।

    सुनाबेसा: बहुदा यात्रा के बाद भगवान को सोने के आभूषणों से सजाया जाता है, जिसे देखकर हर भक्त की आंखें श्रद्धा से भर आती हैं। यह दिन ईश्वर के ऐश्वर्य और सौंदर्य का उत्सव है।

     

    धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व:

    जगन्नाथशब्द का अर्थ ही है – जगत का नाथ, अर्थात सभी का भगवान।  रथ यात्रा में राजा झाड़ू लगाता है, और आमजन रथ खींचते हैं — यह भारत की उस समरसता का उदाहरण है, जहाँ भक्ति और सेवा के सामने सब समान होते हैं।

    यह यात्रा जीवन के गूढ़ रहस्य को भी दर्शाती है —
    मंदिर से प्रस्थान (जन्म), यात्रा (जीवन), विश्राम (गुंडिचा में ठहराव) और वापसी (मृत्यु के बाद परमात्मा से मिलन)।

     

    नवकलेवर की रहस्यमयी परंपरा: जब भगवान स्वयं लेते हैं नया रूप
    पुरी में हर
    12 से 19 वर्षों में एक अद्भुत और आध्यात्मिक घटना घटती है जिसे नवकलेवर” कहा जाता है — इसका अर्थ है नया शरीर”। यह प्रक्रिया उस समय होती है जब अधिक मास (मलमास) पड़ता है यानी जब एक हिंदू वर्ष में दो आषाढ़ मास आते हैं। यह ज्योतिषीय संयोग हर 12-19 साल में ही बनता है और इसी समय भगवान जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा और सुदर्शन को नया कलेवर यानी नई मूर्ति दी जाती है।

     

    कैसे चुनी जाती है वह दिव्य लकड़ी?

    इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होती है नीम के एक विशिष्ट पेड़ की खोज से। यह पेड़ कोई आम पेड़ नहीं होता, बल्कि इसके चयन के लिए कई रहस्यमय और पवित्र मानदंड होते हैं:

    • पेड़ के चारों ओर चक्र, शंख, गदा और पद्म जैसे चिन्ह होने चाहिए।
    • पेड़ में कोई दरार, रोग या कीड़ा नहीं होना चाहिए।
    • पास में कोई नदी, जलस्रोत या मंदिर होना चाहिए।

    पूरे पेड़ की पहचान गुप्त होती है, केवल दायत्व अधिकारी पुजारी ही इसे खोजते हैं और घोषणा करते हैं।